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कलम, तलवार और त्याग
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पैमाने पर तैयारियां की गई। शाहज़ादा सलीम सेनापति बनाये गये और राजा मानसिंह उनके सलाहकार बने। होनहार राजकुमार जगतसिंह बंगाल में बाप का उत्तराधिकारी हुआ। खश-खश पंजाब से अगरे आया और सफर का सामना करने मे लगा था कि अचानक दुनिया से ही उठ गया। बड़ा ही सुशील जवान था। कछवाहो के घर-घर कुहराम मच गया। मानसिंह को यह खबर मिली तो उसकी आँखों जगत सूना हो गया। दो बेटों के घाव अभी भरने न पाये थे कि यह गहरा घाव और बैठा। हाय! जवान और होनहार बेटे की मौत का सदमा कोई उसके दिल से पूछे। अकबर को भी जगतसिंह की मृत्यु का बड़ा दुःख हुआ उससे बहुत स्नेह रखता था। उसके बेटे महानसिंह को बंगाल भेजा, पर वह अभी अनुभव-हीन लड़का था। पठानो से हार खाई और सारे बङ्गाल में बारियों ने स्वाधीनता का झण्डा फहरा दिया। इधर शाहज़ादा का मन भी राणा की मुहिम से उचाट हुआ। भोग-विलास का भक्त था; पहाड़ों से सिर करना पसन्द न आया। बिना बादशाह की इजाजत के इलाहाबाद को लौट पड़ा। मानसिंह भी अमल को चला कि विश्व की आग को उपद्रवियों के रक्त से बुझाये। मगर अफसोस! बुढ़ापे में बदनामी का धब्बा लगा! अकबर को शक हुआ कि सलीम राजा के इशारे ही से लौटा है, यद्यपि यह सन्देह निराधार था। क्योंकि शाहज़ादे के मन पहले से ही उसकी ओर से सशंक और कलुषित हो रहा था। परन्तु मानसिंह की साहस-वीरता-भरी कार्यावली में शीघ्र ही इस शंका को दूर कर दिया। कुछ ही महीनों में बङ्गाल ने फिर अकबर के सामने सिर झुका दिया। और सन् १६०४ ई० मैं अकबर की गुण-ग्राहकता ने उसे शाहज़ादा खुसरों के शिक्षक-पद पर नियुक्त करके हल्फहजारी मनसब--छ: हजार सवारों के नायकत्व-से सम्मानित किया। अब तक यह गौरव किसी और अधिकारी को प्राप्त न हुआ था। पर राजा टोडरमल के सिवा दूसरा कौन था जो स्वामि भक्ति और उसके लिए जान हथेली पर लिये रहने में उसकी बराबरी कर सकता। इस पर