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राणा प्रताप
 


ज्यों ही दोनों सेनाएँ आमने सामने हुई, प्रलयकाण्ड उपस्थित हो गया। मानसिंह के साथियों के दिलो में अपने सरदार के अपमान की आग जल रही थी और वह उसका बदला लेना चाहते थे। राणा के साथी भी यह दिखा देना चाहते थे कि अपनी स्वाधीनता हमें जान से भी अधिक प्यारी है। राणा ने बहुतेरा चाहा कि मानसिह से मुठभेड़ हो जाय तो जरा दिल का हौसला निकल जाय। पर इस यत्न में उन्हें सफलता न हुई। हाँ, संयोगवश उनका घोड़ा सलीम के हाथी के सामने आ गया, फिर क्या था। राणा ने चट रिकाब पर पाँव रखकर भाला चलाया जिसने महावत का काम तमाम कर दिया। चाहता था कि दूसरा तुला हुआ हाथ चलाकर अकबर का चिराग़ गुल कर दे कि हाथी भागा। शाहज़ादे को ख़तरे में देख उसके सिपाही लपके और राणा को घेर लिया। राणा के राजपूतों ने देखा कि सरदार घिर गया तो उन्होंने भी जान तोड़कर हल्ला किया, और उसे प्राण-संकट से साफ निकाल लाये। फिर तो वह घमासान का युद्ध हुआ कि खून की नदियाँ बह गई। राणा जख्मों से चूर-चूर हो रहा था। शरीर से रक्त के फुहारे छूट रहे थे। पर तग हाथ में लिये बिगड़े हुए शेर की तरह मैदान में डटा था, शत्रुदल उसके छत्र को देख-देखकर उसी स्थान पर अपने पूरे बल से धावा करता, पर राणा ने पाँव आगे बढ़ाने के सिवाय पीछे हटाने का नाम भी न लिया। यहाँ तक कि तीन बार दुश्मनो की जद में आते-आते बच गया। पर इस समय तक लड़ाई का रुख पलटने लगा। हृदय की वीरता और हिम्मत का जोश तोप-बन्दूक, गोला-बारूद के सामने कब तक टिक सकता था। सरदार झाला ने जब यह रंग देखा तो चट छत्र वाहक के हाथ से छत्र छीन लिया और उसे हाथ में लिये एक चक्करदार स्थान को चला गया। शत्रु ने समझा कि राणा जा रहा है, उसके पीछे लपके। इधर राणा के साथियों ने मौक़ा पाया तो उसे मैदान से सकुशल बचा ले गये। पर सरदार झाला ने अपने डेढ़ सौ साथियों सहित वीर गति प्राप्त की और स्वामि ऋण से उऋण हो गये। चौदह हज़ार बहादुर