और देशवाशियों की भलाई की सच्ची इच्छा उसमें बसती हो। दूसरी
यह कि अपने प्रस्तावित सुधारो पर उसको दृढ़ विश्वास हो। तीसरी
यह कि वह स्थिरचित और दृढ़निश्चय हो। सुधार के परदे में कोई
अपना काम बनाने की दृष्टि न रखता हो, और अपने सिद्धान्तों के
लिए बड़े-से-बड़ा कष्ट कौर हानि उठाने को तैयार हो, यहाँ तक कि
मृत्यु का भय भी उसे अपने संकल्प से न डिगा सके। कहते थे कि ये
तीनों योग्यताएँ जब तक हममें पूर्ण मात्रा में उत्पन्न न हो जायँ, तब
तक समाज-सुधार के लिए हमारा यत्न करना बिल्कुल बेकार है, पर
हमारे सुधारको में कितने है जिनमें ये योग्यताएँ विद्यमान हौं। फर-
भाते है-
‘क्या भारत में कभी सुधारकों की कमी रही है ? क्या तुम
कभी भारत का इतिहास पढ़ते हो ? रामानुज कौन थे ? शंकर
कौन थे ? नानक कौन थे ? चैतन्य कौन थे ? दादू कौन थे ? क्या
रामानुज नीची जातियों की ओर से लापरवाह थे ? क्या वह
आजीवन इस बात का यत्न नहीं करते रहे कि चमारों को भी
अपने संप्रदाय में सम्मिलित कर ले ? क्या उन्होंने मुसलमानों
को अपनी मण्डली में मिलाने की कोशिश नहीं की थी ? क्या
गुरु नानक ने हिन्दु-मुसलमान दोनों जातियों को मिलाकर एक
बनाना नहीं चाहा था ? इन सब महापुरुषों ने सुधार के लिए
यत्न किये, और उनका नाम अभी तक कायम हैं। अन्तर इतना
है कि वह लोग कटुवादी न थे। उनके मुह से जब निकलते थे,
मीठे वचन ही निकलते थे। वह कभी किसी को गाली नहीं देते
थे, किसी की निन्दा नहीं करते थे। निःसन्देह सामाजिक जीवन
के सुधार के इन गुरतर और महत्वपूर्ण प्रश्नों की हमने उपेक्षा
की है और प्राचीनो ने जो मार्ग स्वीकार किया था, उससे विमुख
हो गये हैं।
सामाजिक सुधार के समस्त प्रचलित प्रश्नों में से स्वामीजी केवल एक के विषय में सुधारको से सहमत थे। बाल-विवाह और जनसाधारण की