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कलम, तलवार और त्याग
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और मुखमण्डल पर आत्मतेज का आलोक। आपकी दयालुता की चर्चा ऊपर कर चुके हैं। कड़ी बात शायद ज़बान से एक बार भी न निकली हो। विश्वविख्यात और विश्ववन्द्ध होते हुए भी स्वभाव अति सरल और व्यवहार अति विनम्र था। उनका पाण्डित्य अगाध, असीम था। अंग्रेजी के पूर्ण पण्डित और अपने समय के सर्वश्रेष्ठ वक्ता थे। संस्कृत-साहित्य और दर्शन के पारगामी विद्वान् और जर्मन, हिन्न, ग्रीक, फ्रेंच आदि भाषाओं पर पूर्ण अधिकार रखते थे। कठोर श्रम तो आपका स्वभाव ही था। केवल चार घण्टे सोते थे। चार बजे तड़के उठकर जप-ध्यान में लग जाते। प्राकृतिक दृश्यों के बड़े प्रेमी थे। भोर में जप-तप से निवृत्त होकर मैदान में निकल जाते और प्रकृति- सुषमा का आनन्द लेते। पालतू पशुओं को प्यार करते और उनके साथ खेलते। अपने गुरुदेव की अन्त समय तक पूजा करते रहे। स्वर में बड़ा माधुर्य और प्रभाव था, श्रीरामकृष्ण परमहंस कभी-कभी आपसे भजन गाने की फरमाइश किया करते थे और उससे इतने प्रभावित होते कि आत्म-विस्मृत-से हो जाते। मीराबाई और तानसेन के प्रेम भरे गीत आपको बहुत प्रिय थे। वाणी में वह प्रभाव था कि वक्तृताएँ श्रोताओं के हृदयों पर पत्थर की लकीर बन जातीं। कहने का ढंग और भाषा बहुत सरल होती थी, पर उन सीधे-सादे शब्दो में कुछ ऐसा आध्यात्मिक भाव-भरा होता था कि सुननेवाले तल्लीन हो जाते थे, आप सच्चे देशभक्त थे, राष्ट्र पर अपने को उत्सर्ग कर देने की बात आपसे अधिक शायद ही और किसी के लिए सही हो सकती हो। देश-भक्ति का ही उत्साह आपको अमरीका ले गया था। अपने विपद्- ग्रस्त राष्ट्र और अपने प्राचीन साहित्य तथा दर्शन का गौरव दूसरे राष्ट्रों की दृष्टि में स्थापित करना, ब्रह्मचारियों को शिक्षा देना, अपने पीड़ित देशवासियों के लिए जगह-जगह खैरात-खाने खुलवाना—यह सब आपके सच्चे देश-प्रम के स्मारक हैं। आप केवल महर्षि ही न थे, ऐसे देशभक्त भी थे जिसने देश पर अपने आपको मिटा दिया हो। एक भाषण में फरमाते हैं-