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अकबर महान
 


पाण्डित्यप्रदर्शन से विचित्र दुशा हो रही थी। सरलतां जो इस लाभ की विशेषता है, नाम को बाकी न रही थी और धर्म अन्धविश्वासों और गतानुगतिक विचारों की गठरी बन रहा था। आलियों और मुल्लाओं की हालत इससे भी गईबीती थी। यद्यपि ये लोग मक्कारी का लबादा हर समय ओढ़े रहते थे, पर पद और प्रतिष्ठा के लिए धर्म के विधि-निषेधों को बच्चो का खेल समझते थे, और जैसा मौका देखते वैसा ही फतवा तैयार हो कर देते थे। इस सबन्ध में मखदूमुल मुल्क और सदरजहाँ के कारनामें और ज़माना साजी जानने योग्य हैं। इन्ही कारणो से अकबर का वह आरंभिक धर्मोंत्साह. जिससे प्रेरित हो वह पैदल अजमेर शरीफ की यात्रा या दिन रात ‘यो मुईन' का जप किया करता था, ठंडा होता गया है और वह यह नतीजा निकालने को लाचार हुआ कि जब तक अंधानुकरण के उस मजबूत जाल से, जिसने मनुष्यों में बुद्धि-विवेक को कै़द कर रखा है, छुटकारा न मिले, किसी स्थायी सुधार की आशा नहीं हो सकती है। अतः उसने सन् जुल्स के २४ वें साल में उलेमा से इमाम आदिल अर्थात् प्रधान धर्म-निर्णायक की सनद हासिल की और दीने इलाहीं की नींव डाली जिसका दरवाजा सब धर्मवालों के लिए समान रूप से खुला हुआ था। इसमें संदेह नहीं कि यह कार्य एक अपढ़ तुर्क की सामथ्र्य और अधिकार के बाहर की बात थी, और इस कारण अबुलफजल जैसे प्रकाण्ड पण्डितों को अपना सारा बुद्धिबल लगा देने पर भी जैसी सफलता चाहिए थी, वैसी न हुई, बल्कि एक खेल- तमाशा बनकर रह गया। पर इसका इतना प्रभाव अवश्य हुआ कि धर्म-गत असहिष्णुता की बुराई जो देश-वासियों को पारस्परिक वैमनस्य के कारण सिर न उठाने देती थी, एक दम दूर हो गई और संकीर्णता की जगह लोगों के विचारों में उदारता आ गई। अकबर यद्यपि स्वयं कुछ पढ़ा-लिखा न था, पर वह भली-भाँति जानता था कि धार्मिक द्वेष का कारण अज्ञान हैं। और उसे हटाने तथा अधीन जातियों पर ठीक प्रकार से शासन करने का सर्वोत्तम उपाय यही है कि उनके