बाबर की महत्त्वाकांक्षा ने चारों ओर से निराश होकर पठानों के आपस के लड़ाई-झगड़े की बदौलत हिन्दुस्तान में पाँव रखने की जगह पाई थी कि जनश्रुति के अनुसार पुत्र-प्रेम के आवेश में अपनी जान बेटे के आरोग्य-लाभ पर न्यौछावर कर दी और उसका लाड़ला बेटा राज्यश्री को अंक में भरने भी न पाया था कि पठानों की बिखरी शक्ति शेरखाँ सूर की महत्त्वाकांक्षा के रूप में प्रकट हुई। हुमायूँ की अवस्था उस समय विचित्र थी। राज्य को देखो तो बस इने-गिने दो-चार शहर थे, और शासन भी नाम का ही था। यद्यपि वह स्वयं उच्च मानव-गुणों से विभूषित था, पर इसमें ठीक राय कायम करने की योग्यता और निश्चयशक्ति का अभाव था जो संपूर्ण राज्यकार्य के लिए आवश्यक है। घर की हालत देखो तो उसी गृहकलह को राज था जिसके कारण पठानों की शक्ति उसके बाप के वीरत्व और नीति-कौशल के सामने न टिक सकी। भाई भाई की आँख का काँटा बन रहा था। मन्त्री और अधिकारी यद्यपि अनुभवी और वीर पुरुष थे, पर इस गृहकलह के कारण वह भी डाँवाडोल हो रहे थे। कभी एक भाई का साथ देने में अपना लाभ देखते थे, कभी दूसरे की
- अल्लाह अकबर। तेरे नाम की क्या महिमा है कि हर अर्जी में दाखिल और हर तौर-में शामिल है।