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राणा जंगबहादुर
 


वह इस कारावास को सहन न कर सकीं और लौंडी के भेस में किले से निकलकर लबी यात्रा के कष्ट झेलते हुए किसी प्रकार नेपाल पहुँचीं। तथा जंगबहादुर को अपने इस विपद्ग्रस्त दशा में पहुँचने की सूचना भेजी। जंगबहादुर ने प्रसन्न-चित्त से उनका स्वागत किया। २५ हजार रुपया उनके लिए महल बनाने के लिए दिया और २११ हजार रुप्या माहवार गुज़ारा बॉध दिया। ब्रिटिश रेजीमेंट ने उन्हें अंग्रेज़ सरकार की नाराजगी का भय दिलाया, पर उन्होंने साफ़ जवाब दिया कि मैं राजपूत हुँ और राजपूत शरणागते की रक्षा करना अपना धर्म समझता है। हाँ, उन्होने यह विश्वास दिलाया कि रानी चन्द्रकुँवर अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध कोई कार्रवाई न करने पायेगी। रानी चंद्र का महल वहाँ अभी तक क़ायम है।

जंगबहादुर को शिकार का बेहद शौक था और इसी शिकार की बदौलत एक बार मरने से बचे। उनका निशाना कभी चुकता ही न था, रण-विद्या के पूरे पण्डित थे। सिपाहियों की बहादुरी की क़द्र करते थे और इसी लिए नैपाल की सारी सेना उन पर जान देती थीं।

जंगबहादुर यद्यपि उस युग में उत्पन्न हुए जब हिन्दू जाति निरर्थक रूढ़ियों की बेड़ी में जकड़ी हुई थी, पर वह स्वतन्त्र तथा प्रगतिशील विचार के व्यक्ति थे। नैपाल में एक नीच जाति के लोग बसते हैं जिन्हें कोची मोची कहते हैं। ऊँची जातिवाले उनसे बहुत बराव- बिलगाव रखते हैं। वे कुओं से पानी नहीं भरने पाते। उनके मुखियों ने जब जंगबहादुर से फ़रियाद की तो उन्होंने एक बड़ी सभा की जिसमें उक्त जाति के लोगों को भी बुलाया और भरी सभा में उनके हाथ को जल पीकर उन्हें सदा के लिए शुद्ध तथा सामाजिक दासत्व और अपमान से मुक्त कर दिया। भारत के बुद्धिभक्तों में कितने ऐसे हैं जो आधी शताब्दी के बीत जाने पर भी किसी अछूत के हाथ से जल ग्रहण करने का साहस कर सकें ? फिर भी जंगबहादुर उस पश्चिमी प्रकाश' से वंचित थे, जिस पर हम शिक्षित हिन्दुओं को इतना गर्व है या इसकी यह अर्थ नहीं कि वह खान पान में भी ऐसे ही