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राणा जंगबहादुर
 


नैपाल थर-थर काँपता था, उसकी शक्ति को इनकी नीति-कुशलता ने देखते-देखते धूल में मिला दिया।

महाराज बहुत दिनों से काश-यात्रा की तैयारी कर रहे थे, रानी का देश-निकाला हुआ तो वह भी उनके साथ जाने को तैयार हो गये। जंगबहादुर ने बहुत समझाया कि इस समय रानी साहिबा के साथ आपको जाना उचित नहीं। आपका बुरा चाहनेवाले लोग कुछ और ही मानी निकाल सकते हैं, पर महाराज ने हठ पकड़ लिया। युवराज सुरेन्द्र विक्रम उनके उत्तराधिकारी स्वीकार किये गये। जंगबहादुर ने यह चतुराई की कि अपने कुछ विश्वासी आदमियों को महाराज के साथ कर दिया, जिससे वह उनकी चेष्टाओं की सूचना देते रहे। महाराज जैसे अव्यवस्थित और अधिकार-लोलुप थे, इससे उन्हें डर था कि कहीं वह दुष्टी के बहकाने में न आ जायें। और उनकी आशंका ठीक निकली। काशी में नेपाल के कितने ही खुराफाती निर्वासित सरदार रहते थे। उन्होंने महाराज को उसकाना आरंभ किया कि नेपाल पर चढ़ाई करके जंगबहादुर के शासन को अन्त कर दें। महाराज पहले तो इस जाल में न फंसे, पर दिन-रात के संग-साथ और उसकाने- भड़काने ने अन्त में अपना असर दिखाया। महाराज को विश्वास हो गया कि जंगबहादुर सचमुच युवराज के नाम पर नेपाल पर खुद राज्य कर रहा है। वह जब नैपाल की ओर लौटे तो दुष्टों का एक दल जिसमें ३०० से कम आदमी न थे, उनके साथ चला। नेपाल की सरहद पर पहुँचकर महाराज सोचने लगे कि अब क्या करना उचित है। महारानी से पत्र व्यवहार हो रहा था और हमले की तैयारी जारी थी। बारियों में मन्त्री, सेना-नायक, कोषाध्यक्ष सब नियुक्त हो गये। व्यवस्थित रूप से सेना की भरती होने लगी। जंगबहादुर के खास अदिमियों ने महाराज को बहुत समझाया कि आप इस कार्रवाई से बाज रहें, पर वह धुन में कब किसी को सुनते थे। मुँह पर तो यही कहते थे कि यह सब अफवाहें गलत हैं, पर भीतर-भीतर पूरी तैयारी कर रहे थे। इधर वहाँ की हरएक बात की सूचना प्रतिदिन जंगबहा