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राणा जंगबहादुर
 


ने मोतबरसिंह का कस कर विरोध किया और क्रोध के आवेश में महारानी के आचरण पर भी आक्षेप कर बैठे। यह असाधारण अपराध था. इसलिए देवीबहादुर को फाँसी की सजा मिली। जंगबहादुर ने अपने भाई के प्राण-दान मिलने की सिफारिश के लिए मोतबरसिंह से बड़ी अनुनय-विनय की, पर उन्होंने महारानी की आज्ञा में दखल देना मुनासिब न समझा। देवीबहादुर की गरदन उतार दी गई।

रानी लक्ष्मीदेवी के आचरण पर देवीबहादुर ने जो आक्षेप किया था, वह एक प्रकट रहस्य था। जनाने दरबार की विशेषताओं से उनका दरबार भी रहित न था। रनिवास क्या था, परिम्तान था। सब बूढी लौंड़ियाँ निकाल दी गई और उनकी जगह सुन्दरी युवती स्त्रियाँ रखी गई थीं। उनमें से अनेक महारानी की मुँह लगी थीं और राजकाज में अकसर वह उन्हीं की सलाह पर चलती थीं। इसलिए दरबार में इन लौंडियों का बड़ा प्रभाव था, और राज्य के छोटे-बड़े सरदार न्याय-अन्याय की ओर से आँखें मुँदकर इन परियों में से किसी एक को शीशे में उतारना कर्तव्य समझते थे। इससे उनके बड़े-बड़े काम निकलते थे। गगनसिंह नामक सरदार पर महारानी की विशेष कृपा-दृष्टि थी। यह बात सबको विदित थी। पर किसी में इतनी हिम्मत न थी कि एक शब्द मुँह से निकाल सके। रानी साहिबा अधिकतर मामलों में गगनसिंह से ही सलाह लेती थीं। उनका उद्देश्य यह था कि उसे मंत्री-पद पर प्रतिष्ठित करें। मोतबरसिंह की ओर से उनका खयाल पहले ही खराब हो गया था, उस पर से गगनसिंह ने भी मोतबरसिंह के विरुद्ध उनके कान खूब भरे। यहाँ तक कि वह इनके जान की भूखी हो गई। जंगबहादुर को गगनसिंह ने मिला लिया, और अन्त में उन्हीं के हाथों निवास में मोतबरसिंह कतल किये गये। जंगबहादुर के नाम से इस काले धब्बे को छुड़ाना असंभव है। इस लज़ाजनक और कायरता भरे कर्म में स्वार्थ के सिवा और कोई उद्देश्य नहीं था।