४१ में इस बुद्धिमती रानी का स्वर्गवास हो गया। और उसकी आँख
मुँदते ही नैपाल मै अराजकता का युग आरंभ हो गया। सुरेन्द्र
विक्रम को अब किसी का डर-भय न रहा, दिल खोलकर अत्याचार-
उत्पीड़न आरभ कर दिया। महाराज में इसकी सामर्थ्य न थी कि
इसकी प्रतिबन्ध कर सकें। अधिकारी और प्रजा सबकी नाक में दम
हो गया। अन्त में इसकी कोशिश होने लगी कि महाराज को अपने
अधिकार छोड़ देने को बाध्य किया जाय और शासन की बागडोर
छोटी रानी लक्ष्मी देवी के हाथ में दे दी जाय। लक्ष्मी देवी युवराज
की सौतेली माँ थीं और अपने लड़के रणविक्रम को गद्दी पर बिठाने
के फेर मे थी। इसलिए राज्य-प्रबन्ध इनके हाथ में आने से यह आशा
की जाती थी कि युवराज का हत्यारापन दूर हो जायगा। अतः दिसम्बर सन् ४२ में राज्य के प्रमुख अधिकारी और प्रजा के मुखिया
जिनकी संख्या ७०० के लगभग थी, एकत्र हुए और सेना के साथ
बैंड बजाते हुए महाराज की सेवा में उपस्थित होकर उनसे एक फ़रमान-पत्र पर हस्ताक्षर करने का अनुरोध किया जिसके अनुसार राजकाज महारानी लक्ष्मी देवी को सौंप दिया जाता। महाराज ने पहले
तो टालमटोल से काम लेना चाहा और एक महीने तक वादो पर
टरकाते रहे, पर अन्त में उन्हें इस फरमान को स्वीकार कर लेने के
सिवा कोई उपाय न दिखाई दिया।
रानी लक्ष्मी देवी पांडे लोगों से बुरा मानती थीं और थापा घराने की तरकदार थीं, इसलिए अधिकार पाते ही उन्होंने जेनरल मोतबरसिंह को नैपाल बुलाया जिन्हें अंग्रेज सरकार ने शिमले में नजरबंद कर रखा था। वह जब नैपाल पहुँचे तो बड़ी धूम से उनका स्वागत किया गया। अगवानी के लिए सेना भेजी गई जिसके साथ जंगबहादुर भी थे। मोतबरसिंह मंत्री बनाये गये और पांडे मंत्री को जान के डर से हिन्दुस्तान भागना पड़ा। इस परिवर्तन में रानी लक्ष्मी देवी का उद्देश्य यह था कि मोतबरसिंह को अपने लड़के रणविक्रम का समर्थक बना ले और युवराज सुरेन्द्र विक्रम को