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कलम, तलवार और त्याग
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में राज्य-विस्तार की सुविधा होती तो संभवतः वह इन सरहदी इलाकों की ओर ध्यान न देते। पर दक्षिण में तो ब्रिटिश सरकार ने उनके बढ़ने की हद बाँध दी थी और पटियाला, नाभा, सौंद आदि सिख राज्यों को अपने प्रभाव में ले लिया था।

विद्या और ललितकला की उन्नति की दृष्टि से रणजीतसिंह की शासन-काल उल्लेखनीय नहीं है उनकी जिन्दगी राज्य को सुदृढ़ बनाने की कोशिशों में ही समाप्त हो गई। स्थापत्य-काल की वह स्मरणीय कृतियाँ जो अब तक मुगल राज्य की याद दिला रहीं हैं, उत्पन्न न हो मर्की, क्योंकि यह पौधे शान्ति के उद्यान में ही उगने और फलते-फूलते हैं।

रणजीतसिंह का वैयक्तिक जीवन सुन्दर और स्पृहणीय नहीं कहा जा सकता। उन दुर्बलताओं में उन्होंने बहन बड़ा हिस्सा पाया था जो उस ज़माने में शरीफ और रईसों के लिए बड़प्पन की सामग्री समझी जाती थीं। और जिनसे यह वर्ग आज भी विमुक्त नहीं है। इनके ९ विवाहित रानिया थीं और ९ रखेलियाँ थीं। लौडियों की संख्या तों सैकड़ों तक पहुँचती थी। विवाहिता रानियाँ प्रायः प्रभाव शाली सिख-घरानो की बेटियाँ थीं। जिन्हें उनके बाप-भाइयों ने अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने के लिए रनिवास में पहुँचा दिया था। इस कारण वहाँ अकसर साज़िशें होती रहती थीं। मद्यपान भी इस समय सिख रईसों का एक सामान्य व्यसन था और महाराज तो राजब के पीनेवाले थे। उनकी शराब बहुत ही तेज होती थी। इस अति मध्पान के कारण ही वे कई बार लकवे के शिकार हुए और अंतिम आक्रमण सांघातिक सिद्ध हुआ। यह हमला १८३० के जोड़े में हुआ और साल भर बाद जान लेकर ही गया। पर इस सांघातिक व्याधि से पीड़ित रहते हुए भी महाराज राजके आवश्यक कार्य करते रहे। उस सिंह का जिसकी गर्जना से पंजाब और अफगानिस्तान काँप उठते थे, सुखपाल में सवार होकर फौन की कवायद देखने के लिए जाना बड़ी ही हृदयविदारक दृश्य थी। हजारों आदमी उनके दर्शन के लिए