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कलम, तलवार और त्याग
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भिजवा दो तो इसके बदले में तुम्हें लाहौर दे दूं। रणजीतसिंह ने यह शर्त बड़ी खुशी से मंजूर कर ली। यद्यपि शाहज़मां का यह वादा कोई अर्थ न रखता था और रणजीतसिंह स्वयं शक्तिशाली न होते तो उससे कुछ भी लाभ न उठा सकते। पर उनके निजी बल और प्रभाव पर इस प्रतिज्ञा से दुहरी चाशनी चढ़ गई। इसके थोड़े ही दिनों बाद उन्होंने अमृतसर पर भी कब्जा कर लिया और अब उनकी शक्ति, और दबदबे के आगे सब मिसलें धूमिल पड़ गई।

यूरोपीय वृत्त लेखकों ने रणजीतसिंह पर स्वार्थपरता, विश्वासघात, निर्दयता, बेवफ़ाई आदि के दोष लगायें हैं और उनके फ़तवे किसी हद तक सही भी हैं। राजनीति में पुराने आचार्यों ने भी थोड़ी-बहुत चालबाज़ी और कठोरता की इजाज़त दी हैं, जिसे दूसरे शब्दों में बेवफाई और बेरहमी कह सकते हैं। इन उपायों के बिना राज्य का नवरोपि बिरवा कभी जड़ नहीं पकड़ सकता। रही स्वार्थ-परता की बात, सो यह दोष हर आदम पर सामान्यतः और हरएक राजा पर विशेषतः घटित हो सकता है। आज तक किसी जाति में कोई ऐसा बादशाह नहीं हुआ जिसने किसी जाति पर केवल सदुद्देश्य, मानव-हित या परोपकार की भावना से राज्य किया हो, बल्कि हमें तो इसके मानने में भी हिचक है कि यह नेकनीयती स्वार्थ को दबाये हुए थी। स्वार्थ शासन के मूल में ही बैठा हुआ है। यह भी ध्यान रहे कि रणजीतसिंह के वचन, व्यव्हार और राजनीति को आज की नैतिक कसौटी पर कसना न्याय नहीं है। रणजीतसिंह ने लाहौर दरबार की रंगभूमि पर जब अपना अभिनय किया था उसको सौ साल का जमाना बीत चुका और इन सौ वर्षों में सभ्यता, सदाचार और सामाजिक जीवन के आदर्श बहुत आगे निकल गये हैं। नीति और सदाचार का मानदण्ड प्रत्येक युग में बदलती रहता है। जो काम आज से १०० साल पहले जायज समझा जाता था, आज अविहित है, और संभव है कि बहुत-सी बातें जिन्हें आज हम बे-झिझक करते हैं, १०० साल बाद लज्जाजनक समझी जाने लगें। सौ साल का ज़माना तो बहुत होता