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कलम, तलवार और त्याग
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था, पर रेनाल्डस का बड़ा आदर होती थ। चित्रकला पर उसने जो व्याख्यान दिये हैं, अपनी सुन्दर शैली और बहुज्ञता के लिए अंग्रेजी साहित्य में उनका बड़ा ऊँचा स्थान है।

उस जमाने में चिकित्सक का व्यवसाय बहुत सहज था, जिसने अंग्रेजी और लैटिन की दो-चार पुस्तके पढ़ लीं और किसी डाक्टर की दुकान में रहकर रोगों और औषधियों के नाम याद कर लिये, वह चिकित्साकार्य करने का अधिकारी हो जाता था। पादरी साहब ने रेनाल्ड्स के लिए यही पेशा तजवीज़ किया और अगर वह वैद्य व्यवसाय की ओर झुकता तो निश्चय ही बैद्यराज बन जाता है। उसका सिद्धान्त था कि श्रम, अध्यवसाय और लगन प्रतिभा के पर्याय हैं ।

चित्रकला का पहला पाठ रेनाल्ड्स ने अपनी दो बहनों से पढ़ा, जिनकी इस कार्य में कुछ रुचि थी। जो कुछ वह अंकित करतीं, रेनाल्ड्स तुरंत उसकी नकल उतार लेता। इसके सिवा सवित्र पुस्तक की भी नक्ल किया करता। इस प्रकार बचपन से ही उसकी दृष्टि में ग्रहण शक्ति और हाथ में सफाई आने लगी। अभी आठ ही बरस का था कि कहीं से चित्रकला की एक पुस्तक उसके हाथ लग गई। फिर क्या था, बड़े प्रेम से उसका पारायण कर डाला। इस अध्ययन का फल यह हुआ कि उसने अपनी पाठशाला का एक नक़श खींचा। पादरी साहब ने यह नक़शा देखा तो बेटे की पीठ ठोंकी और जब रेनाल्ड्स को मालूम हो गया कि पिताजी भी मेरे शौक को पसन्द करते हैं तो वह चित्रकारी में जी-जान से लग गया। धीरे-धीरे घर के सब लोगों के सबीह बना डाले। दोस्तों ने यह तस्वीरे देखीं तो बढ़ावे देने लगे। बीसवें साल ने उसे पक्का चित्रकार बना दिया है।

पर जिस क़सबे में वह रहता था, वह बिल्कुल गुमनाम था। कल्पना और विचारों को विस्तृत करने, कला के आचार्यों से मिलने, उनकी शिक्षा से लाभ उठाने और नाम रयश कमाने के साधनों का सर्वथा अभाव था। इसलिए आवश्यक हुआ कि वह लंदन आकर