बाद वे फिर हैदराबाद गये और वहाँ शिक्षा-विभाग के उपाध्यक्ष
नियुक्त हुए। वहीं से ‘दिलगुद़ाज' निकालने लगे और तारीखेसिंध
लिखा जिस पर निज़ाम की सरकार से ५ हजार रुपया इनाम मिला।
कुछ दिन बाद हैदराबाद से संबन्ध-विच्छेद कर लौट आये और
'हमदद' के दफ्तर में अच्छी तनख्वाह पर नौकरी करके देहली तशरीफ ले गये, पर वहाँ का समाज इन्हें न रुचा और साल भर के
अन्दर ही वहाँ से चले आये। हैदराबाद से फिर बुलावा आया।
१००) माहवार तो वहाँ से पेंशन मिलती थी। ४००) मासिक पर
इसलाम का इतिहास लिखने पर नियुक्त हुए। मगर इस बार मौलाना
हैदराबाद में न टिके, निज़ाम की इजाजत लेकर रखनऊ लौट आये
और ५ बरस तक इस काम में लगे रहे। निज़ाम सरकार ने इस इतिहास को बहुत पसन्द किया। इस बीच ‘दिलगुदाज़' ने बड़ी उन्नति की और हर साल एक नया उपन्यास भी पाठकों को मुफ्त मिलने लगा।
दूसरे महल से मौलाना के दो लड़के और दो लड़कियाँ हैं, जिनमें सबसे छोटी एक लड़की हैं। मौलाना जिस समय हैदराबाद में शिक्षा- विभाग के उपाध्यक्ष थे, वहाँ एक उपन्यास परदे की बुराइयों पर लिखा था। फिर लखनऊ में आकर ‘परदा असमतन’ निकाला जिसके सम्पादक हुसन शाह थे। इस बीच एक अप्रिय विवाद भी छिड़ गया। स्वर्गवासी पण्डित वर्जनारायण चकब्रस्त ने मसनवी गुलजारे नसीम का एक नया संस्करण निकाला। उसकी प्रस्तावना में नसीम' की बड़ाई और दूसरे कवियों की निन्दा का पहलू निकलता था। मौलाना ने उसकी समालोचना की और इसी सिलसिले में मसनवी के कुछ दोषों की भी चर्चा की। इसका जवाब ‘अवध पंच' ने अपने खास ढंग मैं दिया, जिसके बाद मौलाना ने ‘जरीफ' नाम का पत्र निकाला और यंच' के ही रंग मैं प्रत्युत्तर लिखा। जरीफ' के संपादक मुंशी निसार हुसैन थे। यह बहस आठ महीने तक जारी रही। दोनों पक्ष से बड़ा खण्डन-मुण्डन होता रहा। फिर मौलाना ने ‘अल्इरफत ' नाम की मासिक पत्र