मौलाना के उपन्यास न पढ़े हों। यहाँ तक कि कुछ ऐसे आलिम भी, जिन्हें नाविल के नाम से चिढ़ थी, मौलाना की रचनाओं को पढ़ना
पुण्य-जनक कार्य समझते थे। इसके अतिरिक्त उनकी भाषा और भाव
मैं इतनी सभ्यता और गंभीरता था कि सारे हिन्दू-मुसलमान समाज
में उनकी शैली लोकप्रिय हुई। सब सुसंस्कृत लोगों ने उनकी पुस्तको
को अपने पुस्तकालयों में सादर स्थान दिया और उनके अवतरण पाठ्य पुस्तकों में दिये जाने लगे।
'दिलगुद़ाजा' अभी पूरे दो बरस भी न निकलने पाया था कि नवाब वकारुलमुल्क ने मौलाना को बुलाकर अपने लड़की के साथ इंगलैण्ड भेज दिया। डेढ़ बरस के बाद मौलाना इस यात्रा से लौटे तो कुछ ही दिनों के बाद नवाब वकारुमुल्क पदच्युत हो गये और महाराज किशुनप्रसाद वजीर हुए। लाचार मौलाना, फिर लखनऊ लौट आये और 'दिलगुद़ाज' फिर जारी हुआ। इसके सिवा भी मौलाना ने कुछ उपन्यास लिखकर ‘पयामेंयार' के संपादक को उचित पुरस्कार लेकर दिये।
लोग कहते हैं कि आरंभ में मौलाना ने अनेक पत्रों में पारिश्रमिक लेकर काम किया और एक दैनिक पन्ने मैं जो अनवर मुहम्मदी प्रेस से मुंशी मुहम्मद तेग़बहादुर के प्रबन्ध से निकला था, कई लेख लिखे। सहीफ़एनामी' नामक पत्र में भी, जो नामी प्रेस लखनऊ से निकलता था, कुछ काम किया।
पहली स्त्री से मौलाना के दो लड़के और दो लड़कियाँ थीं। बड़े लड़के मुहम्मद सिद्दीक़ हसन की पढ़ाई एंट्रेंस तक हुई। छोटे लड़के मुहम्मद फारूक उच्च-शिक्षा प्राप्त कर रहे थे और मौलाना के दफ्तर का काम अच्छी तरह सँभाल लिया था, पर १८ बरस की उम्र में बीमार होकर चल बसे। इसका मौलाना के हृदय पर कुछ ऐसा आघात पहुँचा कि बहुत दिनों तक काम बन्द रही। इसके बाद एक लड़की की भी मृत्यु हो गई।
५० वर्ष की अवस्था में, मौलाना ने दूसरा ब्याह किया, जिसके