बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज की नीव डाली जिसने
पश्चिम भारत में वही काम किया जो पूर्व में ब्राह्मसमाज ने किया था।
'तफसीरुलकुरान' भी इसी उद्देश्य से लिखी गई कि नवयुवक मुसलमानों के मन में अपने धर्म के विषय में जो शंकाएँ उठें, उनका समाधान कर दिया जाय। पर मुसलमान इस पुस्तक के प्रकाशित होते ही सैयद अहमद खाँ पर कुफ्र का फ़तवा लेकर दौड़े। उन पर नास्तिक, अनेकेश्वरवादी और प्रकृतिपूजक होने का दोष लगाया। देश में एक सिरे से दूसरे तक आग लग गई और जवाबी किताबों का सिलसिला शुरू हुआ। लेखक पर तरह-तरह के अनुचित और असंगत
आरोप किये जाने लगे। कोई-कोई तो यह भी सोचने लगे कि सैयद
अहमद खाँ विलायत जाकर ईसाई हो आये हैं और इसलाम को नष्ट
करने के उद्देश्य से यह पुस्तक लिखी है। बहुत दिनों के बाद यह कोलाहल शान्त हुआ और आज तफसीरुल कुरान तत्त्व-जिज्ञासुओं के लिए
पथप्रदीप का काम कर रही है।
सैयद अहमद खाँ के जीवन का सबसे बड़ा कार्य मदरसतुल उलूम अलीगढ़ कालिज है जो अब मुसलिम विश्वविद्यालय का रूप प्राप्त कर उनका अमर स्मारक बन रहा है। मुसलमानों में निर्धनता और बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही थी और इस बाढ़ को रोकने के लिए उनमें पाश्चात्य शिक्षा का प्रचार होना अत्यावश्यक था। मदरसतुल उलूम ने इस अभाव की बहुत अच्छी तरह पूर्ति कर दी, पर उस समय लोग पश्चिम की शिक्षा दीक्षा से ऐसे भड़क रहे थे कि उन्हें डर था कि कहीं हमारा धर्म भी हमारे हाथ से न चला जाय और फिर हम कहीं के न रहें। पर सर सैयद अपने संकल में दृढ़ थे। उन्होंने इस विचार में इंग्लैंड की यात्रा की कि यहाँ के प्राचीन विश्वविद्यालयों के संघटन और व्यवस्था का अध्ययन करें और इसी नमूने पर हिन्दुस्तान में अपने कालिज की स्थापना करें। १ अप्रैल सन् १८६९ ई० को वह विलायत के लिए रवाना हो गये। लन्दन में जिस ठाट से उनका स्वागत किया गया