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'कलम, तलवार और त्याग
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कक्षाओं में प्रायः स्त्रियाँ ही अध्यापन-कार्य करती हैं। अपनी सहज कोमलता, धैर्य, सहनशीलता और वात्सल्य आदि गुण के कारण वह स्वभवतः बच्चों की शिक्षा के लिए अधिक उपयुक्त होती हैं।

कुरान समाप्त करके सैयद अहमद खाँ ने फारसी और अरबी की पढ़ाई पारम्भ की। १८-१९ बरस की उम्र में उन्होंने पढ़ना छोड़ दिया। पर किताबें पढ़ने का शौक उन्हें आजीवन रहा। दिल्ली का साम्राज्य उस समय केवक एक मिटा हुआ निशान रह गया था। बादशाह लाल किले मैं किसी तकियादार फकीर की तरह रहती थी और अंग्रेज सरकार की पेंशन पर जर कर रहा था। बाबर और अकबर की सन्तति अब एक प्रकार से दिल्ली में कैद थी। सैयद अहमद के पिता शाही दरबार में नौकर थे, पर उनकी मृत्यु के बाद तनख्वाह बन्द हो गई और सैयद अहमद खाँ को जीविका की चिन्ता उत्पन्न हुई। उन्होंने अंग्रेज सरकार की नौकरी स्वीकार कर ली और १८३५ ई० में अगर कमिश्नरी के नायब मुंशीं नियुक्त हुए। यहाँ उन्होंने इतनी तत्परता से काम किया किं दो ही साल में मुनसिक बना दिये गये और मैनपुरी में तैनात कर दिये गये इसी समय उन्होने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक “असारुल सनादी” लिखी, जिसमें दिल्ली की पुरानी शाही इमारतों का वर्णन बड़ी खोज और विस्तार के साथ दिया गया है। इस ग्रन्थ की गणना उर्दू भाषा के 'क्लासिक'-उत्कृष्ट स्थायी साहित्य में की जाती है।

सन् ५७ के ग़दर में सैयद अहमद खाँ बिजनौर में मुन्सिफ थे। यह वह आपत्काल था जब अंग्रेज अफ़सर और उनके बीबी-बच्चे बाशियों के डर से आश्रय ढुँढ़ते फिरते थे। बाग़ी जिस अंग्रेज को पा जाते, हद दरजे की बेदर्दी से क़तल कर डालते थे। उस समय बारियों की मरज़ी के खिलाफ कोई काम करना खुद अपनी जान खतरे में डालना था। पर सैयद अहमद खाँ ने इस कठिन काल में भी न्याय का पक्ष लेने में संकोच न किया और विपदुग्नस्तों की सहायता में डट गये जो मनुष्य का नैतिक कर्तव्य है। उनकी कोशिश से कितने ही अंग्रेजों की जान बच गई। बारियों को इन पर संदेह हुआ।