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कलम, तलवार और त्याग
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साल की असाधारण योग्यता प्रदान की थी। किसी प्रश्न को हाथ में लेते तो उसकी समीक्षा में तल्लीन हो जाते और उसकी जड़ तक पहुँचने की कोशिश करते। स्थूल ज्ञान से उनके अन्वेषण-प्रिय स्वभाव को सन्तोष न होता था। आधे मन से उन्होने कोई काम नहीं किया और अपने शिष्यों में भी इस दोष को कभी सहन नहीं किया। शास्त्रार्थ और वाद-विवाद में भी वे बड़े पटु थे। वह साधक-बाधक युक्तियों पर भली-भाँति विचार करके तब कोई सिद्धान्त स्थिर करते थे और फिर समालोचना-समीक्षा के तीखे से तीखे तीर भी उनका बाल बाँका नहीं कर सकते थे। पण्डिताऊ हठ भी उनमें काफी था और जब अड़ जाते तो किसी तरह नहीं टलते थे। वह एक समय में एक ही विषय की ओर झुकते थे और अपने दिमाग़ की सारी ताकत उसी में लगा देते थे। इसलिए जब कभी बहस की ज़रूरत होती, तो युक्ति, प्रमाण से पूरी तरह लैस होकर मैदान में उतरते थे।

अपने शिष्यों के साथ डाक्टर भांडारकर का बर्ताव बहुत ही सौजन्य और सहानुभूति का होता था। अच्छे गुरु का कर्तव्य है कि अपने शिष्यों का पथप्रर्शक, मित्र और मंत्री हो। डाक्टर भांडारकर ने इस आदर्श को सदा सामने रखा। होनहार लड़कों को अन्य आवश्यकतानुसार आर्थिक सहायता भी दिया करते थे। उनके छात्रों को उन पर पूरा भरोसा रहता था और वह अपनी सब कष्ट कठिनाइयों में उन्हीं से सलाह लेते और उस पर अमल करते थे। अधिकांश अध्यापकों की तरह वह अपनी जिम्मेदारियों की सीमा लेकचर-हाल तक ही नहीं मानते थे। विद्यार्थियों के लिए उनके मकान पर किसी समय रोक-टोक न थी। एक सजीव उदाहरण से स्नान और सदाचार-शिक्षा के जो उद्देश्य सिद्ध हो सकते हैं वे उपदेशों के बड़े-बड़े पोथों से भी नहीं हो सकते। डाक्टर भांडारकर अपने छात्रों के लिए सहानुभूति, सौजन्य और स्वाधीनता के सजीव दृष्टान्त थे। और चूँकि यह गुण दिखाऊ नहीं, किन्तु सहज थे, इसलिए विद्यार्थियों के मन पर अंकित हो जाते थे। "संस्कृत के अध्यापकों को अकसर यह शिकायत रहती हैं कि