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१५१ ]डा० सर रामकृष्ण भांडारकर
 

डाक्टर भांडारकर ने पुरातत्त्व की खोज में विश्वव्यापक ख्याति प्राप्त कर ली है। उन्हें यह शौक क्योंकर पैदा हुआ इसकी कथा बहुत मनोरंजक है, और उससे प्रकट होता है कि आप जिस काम को हाथ लगाते थे, उसे अधूरा नहीं छोड़ते थे। १८५० ई० में एक पारसी सज्जन को एक ताम्रपट हाथ लग गया। वह किसी पुराने खण्डहर मैं गड़ा था और उस पर प्राचीन काल की देवनागरी लिपि में कुछ खुदा हुआ था। उन्होंने उसे डाक्टर भांडारकर को दिया कि शायद वह उसके लेख का कुछ मतलब निकाल सकें। डाक्टर साहब उस समय तक प्राचीन लिपियों से अपरिचित थे; अतः उस लिखावट को न पढ़ सके। पर उसी समय से प्राकृत लिपियों की जानकारी प्राप्त करने की धुन पैदा हो गई। यूरोपीय विद्वानों ने इस क्षेत्र में रास्ता बताने और दिखाने का ही काम नहीं किया है, उन्हें इसका उद्धारक भी समझना चाहिए। डाक्टर भांडारकर ने इस विषय पर अनेक पुस्तकें इकट्ठी की और बड़ी तत्परता के साथ अध्ययन में जुट गये। फल यह हुआ कि उन्होंने साल भर के भीतर ही उस अभिलेख का अर्थ ही नहीं लगा लिया, विद्वानों की सभा में उस पर मारक़े का भाषण भी किया। यही नहीं, इस विषय से उन्हें अनुराग भी उत्पन्न हो गया और खोज-अनुसंधान का कार्य आरंभ हो गया। प्राचीन इतिहास और पुरातत्व पर आपने कितने ही निबन्ध लिखे। प्राकृत भाषाएँ और हमारे प्राचीन इतिहास की समस्याएँ एक दूसरे से इस तरह गुथी हुई हैं कि एक को जानना और दूसरे से अपरिचित रहना असंभव है। अतः डाक्टर भांडारकर ने प्राकृत पर भी भरपूर अधिकार प्राप्त कर लिया। १८७४ ई० में लन्दन में प्राच्य-विद्या विशारदों का एक सम्मेलन हुआ। अपको भी निमन्त्रण मिला। कुछ घरेलू अड़चनों से आप उसमें सम्मिलित न हो सके, पर एक खोजपूर्ण निबंध भेजा जिसके व्यापक अन्वेषण की बड़ी सराहना हुई।

१८७६ ई० में प्रोफेसर विलसन के स्मारक-स्वरूप प्राचीन भाषाओं के प्रचार के लिए एक वार्षिक व्याख्यान-माला की व्यवस्था हुई और