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मौलवी वहीदुद्दीन सलीम
 


सुरक्षित रखा है, शाब्दिक अनुवाद की कभी यत्न नहीं किया। अतः ये रचनाएँ भी बिल्कुल ऐसी हैं जैसी अपने हृदय की प्रेरणा से लिखी जाती हैं।

मौलाना सलीम सदा इस बात का यत्न करते थे कि शेर में कोई न कोई नवीनता अवश्य हो। कहने का ढंग निराला हो या कोई नई उपमा- उत्प्रेक्षा हो, या कोई नया भाव व्यक्त किया गया हो। कोई भी नवीनता न हो, तो वह उस शेर को पसन्द न करते थे। उनके कवित्व में अध्यात्मतत्त्व भी है और दर्शन भी। अध्यात्म का अंश उस सत्संग का सफल है, जो बचपन में हजरत मौलाना सैदय गौसअली साहब का प्राप्त हुआ था और दर्शन का पुट नव्य ज्ञान का प्रसाद है। उनकी ज़िलें प्रायः सभी बढ़िया और सुन्दर हैं। पर वे ग़ज़लें सर्वोत्तम हैं जो हैदराबाद के मुशायरे में पढ़ी गई। वे प्रायः युवकों को लक्ष्य कर लिखी गई हैं, जिनकी प्रगतिशीलता को वह ग़ज़लों में भी उकसाते रहते थे। मौलाना धार्मिक कट्टरपन और पक्षपात से मुक्त थे। उनके विचार अध्यात्म' और दर्शन के प्रभाव से स्वतंत्र प्रकार के थे। इस स्वतंत्रता की झलक उनकी कविता में जगह-जगह दिखाई देती है।


गद्य-रचना

मौलाना ने गद्य लिखना प्रायः उस समय से आरंभ किया, जब वह सर सैयद के साहित्यिक सहकारी थे। सर सैयद् की सङ्गति के प्रभाव से उनके गद्य में यह विशेषता उत्पन्न हो गई कि प्रत्येक भाव को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रकट करते हैं। उनके वर्णन में कोई ऐसी ग्रंथि नहीं होती जिससे पढ़नेवाले को अर्थबोध में कठिनाई पडे़। प्रत्येक विषय को प्रवाह रूप में लिखते जाते हैं। जब जोश आता है तो उबल पड़ते हैं। और ऐसे अवसरों पर उनकी लेखनी से जो वाक्य निकल जाते हैं, वे अति प्रभावकारी और हृदयस्पर्शी होते हैं। अकारण अरबी के बड़े-बड़े शब्द लिखकर पाठक पर अपने पाण्डित्य की धाक जमाना नहीं चाहते। कहीं भी शब्दों की काट-छाँट के पीछे नही पड़ते, नये-नये पदविन्यास