पृष्ठ:कलम, तलवार और त्याग.pdf/१४६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४५ ]
मौलवी वहीदुद्दीन सलीम
 


गया और मरते दम तक उन्हें अपने पास से अलग नहीं किया। यद्यपि उन्होने उच्च अंग्रेजी शिक्षा नहीं प्राप्त की थी, पर अंग्रेज़ीदाँ से जब किसी विषय पर वार्तालाप होता था तो उनको अकसर लज्जित होना पड़ता था। प्रोफ़ेसरी के जमाने में भी वह उर्दू साहित्य की शिक्षा उसी नई प्रणाली से देते थे, जिस पर अंग्रेजी साहित्य-शिक्षा अवलंबित है।


कवित्व

मौलाना के आरंभिक जीवन-वृत्तान्त की खोज से मालूम हुआ है। कि उन्हें शायरी का शौक १४ बरस की उम्र से था। आरंभ में उर्दू ज़लें उसी ढंग की लिखीं जैसी आमतौर से लिखी जाती हैं। लाहौर में शिक्षा-प्राप्ति के समय उनके विचार बदले और उन्होने बहुत-सी इसलामी कविताएँ लिखी। उस जमाने में फारसी और अरबी भाषाओं में भी बहुत-से पद्य लिखे। इन दोनों भाषाओं में भी उनकी रचना प्रौढ़ समझी गई थी। सर सैयद् के साहित्यिक सहकारी नियुक्त होने से पहले यह सिलसिला जारी रहा, पर इस पद पर पहुँचने के बाद से गद्यरचना की ओर अधिक झुकाव हो गया था। फिर भी उर्दू शायरी नहीं छुटी। जब-तब दिल में उमंग उठती और हृदय में भरे हुए भाव पद्य-रूप में बाहर आ जाते। यह रचनाएँ जिन मित्रों के हाथ लगीं वह ले गये। इस समय की कविता अब उपलब्ध नहीं, हाँ 'मआरिफ' 'जमींदार',‘मुसलिम गजट' की फाइलों में उसका कुछ अंश विद्यमान हैं, पर सब कल्पित नामों से प्रकाशित हैं। कितनी ही रचनाओं के अन्त में एक लिबरल मुसलमान' लिखा है। असल बात यह है कि मौलाना सलीम प्रौढ़ और रससिद्ध कवि होने पर भी कवि कहलाने में सकुचाते थे और अपनी रचनाएँ प्रकाशित कराने में सदा आनाकानीं किया करते थे। मित्रों के बहुत आग्रह करने पर भी अपना शेष काव्य प्रकाशित कराने को तैयार नहीं हुए। यह अप्रकाशित काव्य हैदराबाद के प्रवास-काल से संबन्ध रखता है। उन दिनों वहाँ हर महीने एक मुशायरा हुआ।