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मौ० वहीदुद्दीन'सलीम'
 


सत के हाई स्कूल के हेड मौलवी के पद पर बुला लिये गये। पर यह सिलसिला छः महीने से अधिक न चल सका। क्योंकि जेनरल अज़ीमुद्दीन जो मौलाना को मानते थे, अचानक क़तल कर दिये गये। इधर मौलाना भी ऐंठन के रोग से पीड़ित होकर ६ साल तक खाट पर पड़े रहे। इसके बाद अपने जालंधर के एक मशहूर हकीम से (जो हकीम महमूद खाँ के सहपाठी थे) यूनानी तिब्बत का अध्ययन किया और इसी तौर पर डाक्टरी का भी ज्ञान प्रप्त कर पानीपत में चिकित्सा-काये प्रारंभ किया जो कई साल तक सफलतापूर्वक चलता रहा।

इसी समय मौलाना हाजी आपको अपने साथ अलीगढ़ ले गये और सर सैयद् अहमद खाँ से मिलाया। सर सैयद की पारखी निगाह ने इस दुर्लभ रत्न को पहचान लिया और अग्रह करके अपने पास रहने पर राजी कर दिया और फिर मरते दम तक इन्हें अपने पास से हटने न दिया। मौलाना कभी किसी बात पर नाराज होकर अलीगढ़ से चले जाते तो सर सैयद अपने खास दोस्त मौलवी जैतुलआबिदीन को उनके पीछे-पीछे स्टेशन तक भेजते और मौलाना सलीम खींच-खाँचकर सर सैयद के दरबार में वापस लाये जाते। सर सैयद का नियम था कि जो शास्त्रीय या धर्म-संबन्धी विषय विचारणीय होते, उन पर मौलाना सलीम के साथ बहस मुबाहसा करते थे। दोनों दो पक्ष ले लेते और विचारणीय प्रश्न के एक-एक अंग को लेकर उस पर खूब बहस - मुबहसा और खण्डन-मण्डन करते। अन्त में किसी सिद्धान्त पर पहुँचकर विवाद समाप्त कर दिया जाता। इस सहायता के अतिरिक्त मौलाना सलीम सर सैयद को प्रथ-रचना में भी मदद देते थे और उनके लेखों का मसाला इकट्ठा करते थे। अलीगढ़ राज़ट और तहजीबुल अखलाफ़' में लेख भी लिखते थे।

सर सैयद अहमद के देहान्त के बाद मौलाना सलीम ने हाजी इसमाईल खाँ साहब रईस बतावली के सहयोग से 'मआरिफ नामक मासिक निकाला जिसको बड़ा आदर हुआ। इसी समय मौलाना के छोटे भाई. हमीदुद्दीन साहब ने 'हाली प्रेस' के नाम से