स्वयंसेवकों के साथ आ पहुंचा और घमासान युद्ध के बाद ८ हजार
अनुभवी फ्रांसीसी सैनिको के पाँव उखाड़ दिये। फ्रांसीसी जेनरल
ऐसा घबराया कि संधि की प्रार्थना की। गेरीबाल्डी इसके विरुद्ध
था, क्योकि वह जानता था कि शत्रु केवल कुमक की प्रतीक्षा करने के
लिए मुहलत चाहता है। पर मेजिनी ने सुलह कर लेना ही अधिक
उचित समझा। आखिर इस अदूरदर्शिता का परिणाम यह हुआ कि फ्रांसीसियों ने धोखा देकर रोम पर कब्जा कर लिया और गैरीबाल्डी
को बड़ी परीशानी के साथ वहाँ से भागना पड़ा।
इस प्रकार पराजित होकर गेरीबाल्डी अपने पक्के साथियों के साथ, जो डेढ़ हजार के लगभग थे, ईश्वर का नाम ले चल खड़ा हुआ। उसकी पतिप्राणा पत्नी भी उसके साथ थी। बहुत दिनों तक वह देश में मारा-मारा फिरता रहा। सथी दिन-दिन घटते जाते थे, न रक्षा का कोई सामान था, न हरवे-हथियार का कोई प्रबन्ध। शत्रु उसकी एक-एक हरकत की जाँच पड़ताल किया करते थे और उसे इतनी मुहलत न देते थे कि जनता को भड़काकर कुछ करा सके। आज यहाँ है, कल वहाँ है। नित्य ही शत्रु के घाबे होते थे। गेरीबाल्डी के इस जीवन का वृत्तान्त बहुत ही मनोरंजक कहानी है। सच है, स्वदेश की सेवा सहज काम नहीं है। उसके लिए ऊँचा हौसला, फौलाद की दृढ़ता, दिन-रात मरने-पिसने का अभ्यास और हर समय जान हथेली पर लिये रहने की आवश्यकता है। जब तक यह गुण अपने स्वभाव में समा न जायँ, स्वदेश-सेवा का व्रत लेना जबानी ढकोसला है। अन्त में एक मौके पर आस्ट्रिया की सेना ने उसे घेर लिया कि कहीं से निकल भागने का रास्ता न दिखाई देता था। उसके साथियों ने जान बचाने का कोई उपाय न देख हिम्मत हार दी, और लगभग ५०० आदमियों ने हथियार रखकर शत्रु से प्राण-भिक्षा माँगी। पर आस्ट्रिया की सेना का हृदय इतना कलुषित हो रहा था कि उसे इन अभागो की दशी पर तनिक भी दया न आई, और उस रियायत के बदले जो युद्ध के नियमों के अनुसार आत्म-समर्पण करनेवालों पर की