पृष्ठ:कलम, तलवार और त्याग.pdf/११

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
९]
राणा प्रताप
 


मन के सच्चे जोश से गले-गले मिले, यहाँ स्वामिभक्त चेतक ने दम तोड़ दिया। शक्त ने अपना घोड़ा भाई के नज़र किया। राणा ने जब चेतक की पीठ से जीन उतारकर उस नये घोड़े की पीठ पर रखा, तो वह फूट-फूटकर रो रहा था। उसे किसी सगे-संबन्धी के मर जाने का इतना दुःख न हुआ था। क्या सिकन्दर का घोड़ा बस्फाला चेतक से अधिक स्वामिभक्त था? पर उसके स्वामी ने उसके नाम पर नगर बसा दिया था। राणा की वह विपत्-काल था। उसने केवल आँसू बहाकर ही संतोष किया। आज उस स्थान पर एक टूटा-फूटा चबूतरा दिखाई देता है, जो चेतक के स्वामी पर प्राण निछावर कर देने का साक्षी है।

शाहज़ादा सलीम विजय-दुदुभी बजाता हुआ पहाड़ियों से निकला। उस समय तक बरसात का मौसिम शुरू हो गया था और चूँकि जलवायु के विचार से यह काल उन पहाड़ियों में बड़े कष्ट का होता है, इसलिए राणा को तीन-चार महीने इतमीनान रहा, पर वसन्त-काल आते ही शत्रु सेना फिर धावा किया। महावत खाँ उदयपुर पर हुकूमत कर ही रहा था, कोका शहबाज खाँ ने कुंभलमेर को घेर लिया। राणा और उसके साथियों ने यहाँ भी खूब वीरता दिखाई। पर किसी घर के भेदी ने जो अकबर से मिला हुआ था, क़िले के भीतर कुएँ में ज़हर मिला दिया और राणा को वहाँ से निकल जाने के सिवा और कोई रास्ता न दिखाई दिया। फिर भी उसके एक सरदार ने जिसका नाम भानु था, मरते दम तक क़िले को दुश्मनों से बचाये रखा। उसके वीरगति प्राप्त कर लेने के बाद इस किले पर भी अकबरी झण्डा फहराने लगा।

कुंभलमेर पर कब्जा कर लेने के बाद राजा मानसिंह ने धरमेती और गोगंडा के क़िलों को जा घेरा। अब्दुल्ला नाम के एक और सरदार ने दक्षिण दिशा से चढ़ाई की। फरीद खाँ ने छप्पन पर हमला किया। इस प्रकार चारों ओर से घिरकर प्रताप के लिए अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेने के सिवा और कोई रास्ता न रहा, पर वह शेरदिल