उसी समय वहाँ दक्षिण के कुछ उदारहृदय, उत्साही देशभक्तो ने जनसाधारण की शिक्षा के लिए एक अंग्रेजी स्कूछ खोला था और मिस्टर तिलक, मिस्टर आपटे और अन्य महानुभावों के संरक्षण में 'डेकन एजुकेशन सोसाइटी' नाम से संस्था स्थापित हुई थी, जिसका उद्देश्य उच्च शिक्षा का प्रचार करना था। मिस्टर गोखले ने जीविका का और कोई उपाय न देखा इस विद्यालय में एक पद स्वीकार कर लिया। आगे चलकर यही विद्यालय फर्गुसन कालेज के नाम से प्रसिद्ध हुआ और आज तक दक्षिण की सहानुभूति, देश-सेवा के उत्साह और आत्म-त्याग के सजीव स्मारक-रूप में विद्यमान है। उक्त शिक्षा-संस्था के प्रत्येक सदस्य को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी कि मैं इस कालेज में बिना पारिश्रमिक का विचार किये, यथाशक्ति शिक्षण-कार्य करता रहूँगा। भारतवर्ष अनन्तकाल तक उन महानुभावों के आत्म त्याग की ऋणी रहेगा, जिन्होंने अपने निजी लाभ की ओर न देखकर अपना जीवन देश-सेवा के लिए अर्पण कर दिया और जिनके सप्रयत्न के फलस्वरूप एक छोटा-सा स्कूल आज देश को एक सुविख्यात और सुसम्मानित राष्ट्रीय महाविद्यालय है। प्रसन्नता की बात है कि देश-सेवा का उत्साह जिसने फर्गुसन कालेज को पाला-पोसा, आज हमारे ज्ञानालोक से वंचित प्रान्त में भी विशेष-रूप से प्रकट हो रहा है और कुछ प्रगतिशील देश- भक्तों ने सेंट्रल हिन्दुकालेज के लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया है। और उनकी यह तपस्या आगे चलकर अवश्य सफल होगी।
मध्यवित्त वर्ग के दूसरे नवयुवकों की तरह गोखले के हृदय में भी नाम-प्रतिष्ठा के अतिरिक्त धन-सम्पत्ति की भी आकांक्षा भरी हुई थी। यह नौकरी उन्होने आवश्यकता से विवश होकर केवल अस्थायी रूप में स्वीकार कर ली थी। पर जब संस्था के सदस्यों के साथ उठने- बैठने, रहने-सहने और विचार-विनिमय का अवसर मिला, तो उनके उदार और सहानुभूति-युक्त विचारों का इन पर भी गहरा असर पड़ा। आप भी उसी रँग में रंग गये और देश सेवा की उमंग इतनी उमड़ी कि नाम, बड़ाई, धन-दौलत के हवाई क़िले क्षण में धराशायी हो गये।