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कुछ लोगों का कहना था--सरकार ने जज साहब को हुक्म देकर वह फैसला कराया है; क्योंकि भिखारिन को सजा देने से शहर में दंगा हो जाने का भय था। अमरकान्त उस समय भोज के सरंजाम करने में व्यस्त था; पर यह खबर पा जरा देर के लिये सब कुछ भूल गया और इस फैसले का सारा श्रेय खुद लेने लगा। भीतर जाकर रेणुका देवी से कहने लगा--आपने देखा अम्माजी, मैं कहता था न, उसे बरी कराके दम लूँगा, वहीं हुआ। वकीलों और गवाहों के साथ कितनी माथा-पच्ची करनी पड़ी है, कि मेरा दिल ही जानता है। बाहर आकर मित्रों से और सामने के दुकानदारों में भी उसने यही डींग मारी।

एक मित्र ने कहा--पर औरत बड़ी धुन की पक्की है। शौहर के साथ न गयी, न गयी! बेचारा पैरों पड़ता रह गया।

अमरकान्त ने दार्शनिक विवेचना के भाव से कहा--जो काम खुद न देखो, वही चौपट हो जाता है। मैं तो इधर फंस गया। उधर किसी से इतना भी न हो सका कि उस औरत को समझाता। मैं होता, तो मजाल थी कि वह यों चली जाती। मैं जानता कि यह हाल होगा, तो सौं काम छोड़कर जाता और उसे समझाता। मैंने तो समझा डाक्टर साहब और बीसों आदमी हैं, मेरे न रहने से ऐसा क्या घी का घड़ा लुढ़का जाता है ? लेकिन वहां किसी को क्या परवाह ! नाम तो हो गया। काम हो या जहन्नम में जाय !

लाला समरकान्त ने नाच-तमाशे और दावत में खूब दिल खोलकर खर्च किया। वही अमरकान्त जो इन मिथ्या व्यवहारों को आलोचना करते कभी न थकता था, अब मुंह तक न खोलता था, बल्कि उलटे और बढ़ावा देता था--जो सम्पन्न हैं, वह ऐसे शुभ अवसर पर न खर्च करेंगे, तो कब करेंगे, यही धन की शोभा है। हां, घर फूंककर तमाशा न देखना चाहिए।

अमरकान्त को अब घर से विशेष घनिष्टता होती जाती थी। अब बह विद्यालय तो जाने लगा था, पर जलसों और सभाओं से जी चुराता रहता था। अब उसे लेन-देन से उतनी घृणा न थी। शाम-सबेरे बराबर दुकान पर आ बैठता और बड़ी तन्देही से काम करता। स्वभाव में कुछ कृपणता भी आ चली थी। दुःखी जनों पर उसे अब भी दया आती थी; पर वह दुकान की बँधी हई कौड़ियों का अतिक्रमण न करने पाती। इस अल्पकाय शिशु ने

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कर्मभूमि