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लिए पाँच हज़ार से कम न लूँगी। मुझे उनका वन न चाहिए। चंदा मिले तो वाह-वाह, नहीं तो उन्हें खुद निकल आना चाहिए। ताँगा बुलवा लो।

अमरकान्त को आज ज्ञात हुआ, विलासिनी के हृदय में कितनी वेदना, कितना स्वजाति-प्रेम, कितना उत्सर्ग है।

ताँगा आया और दोनों रेणुका देवी से मिलने चले।


तीन महीने तक सारे शहर में हलचल रही। रोज हजारों आदमी सब काम धन्धे छोड़कर कचहरी जाते। भिखारिन को एक नज़र देख लेने की अभिलाषा सभी को खींच ले जाती। महिलाओं की भी खासी संख्या हो जाती थी। भिखारिन ज्योंही लारी से उतरती 'जय-जय' की गगन-भेदी ध्वनि और पुष्प वर्षा होने लगती। रेणुका और सुखदा तो कचहरी के उठने तक वहीं रहतीं।

जिला मैजिस्ट्रेट ने मुकदमे को जजी में भेज दिया और रोज पेशियाँ होने लगी। पंच नियुक्त हुए। इधर सफ़ाई के वकीलों की एक फौज तैयार की गयी। मुक़दमे को सबूत की ज़रूरत न थी। अपराधिनी ने अपराध स्वीकार ही कर लिया था। बस यही निश्चय करना था, कि जिस वक्त उसने हत्या की उस वक्त वह होश में थी या नहीं। शहादतें कहती थी, वह होश में न थी। डाक्टर कहता था, उसमें अस्थिरचित्त होने के कोई चिह्न नहीं मिलते। डाक्टर साहब बंगाली थे। जिस दिन वह बयान देकर निकाले, उन्हें इतनी धिक्कारें मिली कि बेचारे को घर पहुँचना मुश्किल हो गया। ऐसे अवसरों पर जनता की इच्छा के विरुद्ध किसी ने चूँ किया और उसे धिक्कार मिली। जनता आत्म-निश्चय के लिए कोई अवसर नहीं देती। उसका शासन किमी तरह की नर्मी नहीं करता।

रेणुका नगर की रानी बनी हुई थी। मुक़दमे की पैरवी का सारा भार उसके ऊपर था। शान्ति कुमार और अमरकान्त उसकी दाहिनी और बायीं भजाएँ थे। लोग आ-आकर खुद चन्दा दे जाते। यहाँ तक कि लाला समरकान्त भी गुप्त रूप से सहायता कर रहे थे।

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कर्मभमि