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एक समुह लारी के पीछे दौड़ा--अपने नेता को छुड़ाने के लिए नहीं, केवल श्रद्धा के आवेश में, मानो कोई आशीर्वाद पाने की सरल उमंग में। जब लारी गर्द में लुप्त हो गयी, तो लोग लौट पड़े।

'यह कौन खड़ा बोल रहा है?'

'कोई औरत जान पड़ती है।'

'कोई भले घर की औरत है।'

'अरे यह तो वही हैं, लालाजी की समधिन, रेणुका देवी।'

'अच्छा! जिन्होंने पाठशाले' के नाम अपनी सारी जमा-जथा लिख दी?'

'सुनो! सुनो!'

'प्यारे भाइयो, लाला समरकान्त जैसा योगी जिस सुख के लोभ से चलायमान हो गया, वह कोई बड़ा भारी सुख होगा। फिर मैं तो औरत हूँ, और औरत लोभिन होती ही है। आपके शास्त्र-पुराण सब यही कहते हैं। फिर मैं उस लोभ को कैसे रोकूँ। मैं धनवान् की बहू, धनवान् की स्त्री, भोग विलास में लिप्त रहने वाली, भजन-भाव में मगन रहनेवाली, मैं क्या जानूं ग़रीबों को क्या कष्ट है, उन पर क्या बीतती है। लेकिन इस नगर ने मेरी लड़की छीन ली, और अब मैं भी तुम लोगों ही की तरह ग़रीब हूँ। अब मुझे इस विश्वनाथ की पुरी में एक झोपड़ा बनवाने की लालसा है। आपको छोड़कर मैं और किसके पास माँगने जाऊँ। यह नगर तुम्हारा है। इसकी एक-एक अंगुल जमीन तुम्हारी है। तुम्हीं इसके राजा हो। मगर सच्चे राजा की भाँति तुम भी त्यागी हो। राजा हरिश्चन्द्र की भाँति अपना सर्वस्व दूसरों को देकर, भिखारियों को अमीर बनाकर, तुम आप भिखारी हो गये हो। जानते हो वह छल से खोया हुआ राज्य तुमको कैसे मिलेगा? तुम डोम के हाथों बिक चुके। अब तुम्हें रोहितास और शैय्या को त्यागना पड़ेगा। तभी देवता तुम्हारे ऊपर प्रसन्न होंगे। मेरा मन कह रहा है कि देवताओं में तुम्हारा राज दिलाने की बातचीत हो रही है। आज नहीं तो कल तुम्हारा राज्य तुम्हारे अधिकार में आ जायगा। उस वक्त मुझे भूल न जाना। मैं तुम्हारे दरबार में अपना प्रार्थना-पत्र पेश किये जा रही हूँ।'

सहसा पीछे शोर मचा--फिर पुलिस आ गयी!

कर्मभूमि
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