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जेलर ने समीप जाकर अपनी छड़ी उसके पीठ में चुभाते हुए कहा--बहरा हो गया है बे? शामत तो नहीं आई है?

काले खाँ नमाज पढ़ने में मग्न था। पीछे फिरकर भी न देखा।

जेलर ने झल्लाकर लात जमाई। काले खाँ सिजदे के लिए झुका हुआ था। लात खाकर औंधे मुंह गिर पड़ा; पर तुरन्त सँभलकर फिर सिजदे में झुक गया। जेलर को अब ज़िद पड़ गयी कि उसकी नमाज़ बन्द कर दे। संभव है, काले खाँ को भी ज़िद पड़ गयी हो कि नमाज पूरी किये बगैर न उठूँगा। वह तो सिजदे में था। जेलर ने उसे बूटदार ठोकरें जमानी शुरू कीं। एक वार्डर ने लपककर दो गारद के सिपाही बुला लिये। दूसरा जेलर साहब की कुमुक पर दौड़ा। काले खाँ पर एक तरफ से ठोकरें पड़ रही थीं, दूसरी तरफ से लकड़ियाँ पर वह सिजदे से सिर न उठाता था। हाँ, प्रत्येक आघात पर उसके मुँह से 'अल्लाहो अकबर!' की दिल हिला देनेवाली सदा निकल जाती थी। इधर आघातकारियों को उत्तेजना भी बढ़ती जाती थी। जेल का कै़दी जेल के खुदा को सिजदा न करके अपने खुदा को सिजदा करे, इससे बड़ा जेलर साहब का क्या अपमान हो सकता था। यहाँ तक कि काले खाँ के सिर से रुधिर बहने लगा। अमरकान्त उसकी रक्षा करने के लिए चला था कि एक वार्डर ने उसे मजबूत पकड़ लिया। उधर बराबर आघात हो रहे थे और काले खाँ बराबर 'अल्लाहो अकबर!' की सदा लगाये जाता था। आख़िर आवाज़ क्षीण होते-होते एक बार बिलकुल बन्द हो गयी और काले खाँ रक्त बहने से शिथिल हो गया। मगर चाहे किसी के कानों में आवाज़ न जाती हो, उसके ओठ अब भी खुल रहे थे और अब भी 'अल्लाहो अकबर' की अव्यक्त ध्वनि निकल रही थी।

जेलर ने खिसिया कर कहा---पड़ा रहने दो बदमाश को यहीं! कल से इसे खड़ी बेड़ी दूँगा और तनहाई भी। अगर तब भी न सीधा हुआ, तो उलटी होगी। इसका नमाज़ीपन निकाल न दूँ, तो नाम नहीं!

एक मिनट में वार्डर, जेलर, सिपाही सब चले गये। कैदियों के भोजन का समय आया, सब-के-सब भोजन पर जा बैठे। मगर काले खाँ अब भी वहीं औंधा पड़ा था। सिर और नाक तथा कानों से खून बह रहा था। अमरकान्त

कर्मभूमि
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