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था। काम में लगाना चाहते थे और उसके काम न करने पर बिगड़ते थे। अब पढ़ाई का कुछ खर्च न देना पड़ता था इसलिए कुछ न बोलते थे; बल्कि कभी-कभी सन्दुक की कुंजी न मिलने या उठकर सन्दुक खोलने के कष्ट से बचने के लिए, बेटे से रुपये उधार ले लिया करते। न अमरकान्त माँगता, न वह देते।

सुखदा का प्रसवकाल समीप आता जाता था। उसका मुख पीला पड़ गया था, भोजन बहुत कम करती थी और हँसती-बोलती भी कम थी। वह तरह-तरह के दुःस्वप्न देखती रहती थी, इससे चित्त और भी सशंकित रहता था। रेणुका ने जनन-सम्बन्धी कई पुस्तकें उसको मँगा दी थीं। इन्हें पढ़कर वह और भी चिन्तित रहती थी। शिशु की कल्पना से चित्त में एक गर्वमय उल्लास होता था; पर इसके साथ ही हृदय में कम्पन भी होता था--न जाने क्या होगा।

उस दिन सन्ध्या समय अमरकान्त उसके पास आया तो वह जली बैठी थी। तीक्ष्ण नेत्रों से देखकर बोली--तुम मुझे थोड़ी-सी संखिया क्यों नहीं दे देते ! तुम्हारा गला भी छूट जाय, मैं भी जंजाल से मुक्त हो जाऊँ।

अमर इन दिनों आदर्श पति बना हुआ था। रूप-ज्योति से चमकती हुई सुखदा आँखों को उन्मत्त करती थी; पर मातृत्व के भार से लदी हुई यह पीले मुखवाली रोगिणी उसके हृदय को ज्योति से भर देती थी। वह उसके पास बैठा हुआ उसके रूखे केशों और सूखे हाथों से खेला करता। उसे इस दशा में लाने का अपराधी वह है, इसलिए इस भार को सह्य बनाने के लिए वह सुखदा का मुँह जोहता रहता था। सुखदा उससे कुछ फ़रमाइश करे, यही इन दिनों उसकी सबसे बड़ी कामना थी। वह एक बार स्वर्ग के तारे तोड़ लाने पर भी उतारू हो जाता। बराबर उसे अच्छी-अच्छी किताबें सुनाकर उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करता रहता था। शिशु की कल्पना से उसे जितना आनन्द होता था उससे कहीं अधिक सुखदा के विषय में चिन्ता थी--न जाने क्या होगा। घबड़ाकर भारी स्वर में बोला--ऐसा क्यों कहती हो सुखदा, मुझसे ग़लती हुई हो, तो बता दो।

सुखदा लेटी हुई थी। तकिये के सहारे टेक लगाकर बोली--तम आम जलसों में कड़ी-कड़ी स्पीचें देते फिरते हो। इसके सिवा और क्या मतलब है कि तुम पकड़े जाओ और अपने साथ घर को भी ले डूबो। दादा से पुलिस

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कर्मभूमि