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चढ़ाते थे और अपनी जगह पर आ बैठते थे। गूदड़ तो अन्दर जा न सकते थे, अमर अन्दर गया; पर वहाँ उसे कौन पूछता। आख़िर जब खड़े-खड़े आठ बज गये, तो उसने महन्तजी के समीप जाकर कहा--महाराज, मझे आपसे कुछ निवेदन करना है।

महन्तजी ने इस तरह उसकी ओर देखा, मानो उन्हें आँखें फेरने में कष्ट है।

उनके समीप एक दूसरा साधु खड़ा था। उसने आश्चर्य से उसकी ओर देखकर पूछा--कहाँ से आते हो?

अमर ने गाँव का नाम बताया।

हुकुम हुआ, आरती के बाद आओ।

आरती में तीन घण्टे की देर थी। अमर यहाँ कभी न आया था। सोचा यहाँ की सैर ही कर लें। इधर-उधर घूमने लगा। वहाँ से पश्चिम तरफ़ तो विशाल मन्दिर था। सामने पूरब की ओर सिंहद्वार, दाहिने-बायें दो दरवाजे और भी थे। अमर दाहिने दरवाजे के अन्दर घुसा, तो देखा चारों तरफ़ चौड़े बरामदे हैं और भण्डार हो रहा है। कहीं बड़ी-बड़ी कढ़ाइयों में पूरियाँ कचोड़ियाँ बन रही हैं, कहीं भाँति-भाँति की शाक-भाजी चढ़ी हुई है, कहीं दूध उबल रहा है, कहीं मलाई निकाली जा रही है। बरामदे के पीछे, कमरों में खाद्य सामग्री भरी हुई थी। ऐसा मालूम होता था कि अनाज, शाक-भाजी, मेवे, फल, मिठाई की मंडियाँ हैं। एक पूरा कमरा तो केवल परवलों से भरा हुआ था। इस मौसम में परवल कितने मँहगे होते है; पर यहाँ वह भूसे की तरह भरे हुए थे। अच्छे-अच्छे घरों की महिलाएँ भक्त-भाव से व्यंजन पकाने में लगी हुई थीं। ठाकुरजी के व्यालू की तैयारी थी। अमर यह भण्डार देखकर दंग रह गया। इस मौसम में यहाँ बीसों झावे अंगूर से भरे थे।

अमर यहाँ से उत्तर के द्वार में घुसा, तो यहाँ बाज़ार सा लगा देखा। एक लम्बी क़तार दरज़ियों की थी, जो ठाकुरजी के वस्त्र सी रहे थे। कहीं ज़री के काम हो रहे थे, कहीं कारचोबी की मसनदें और गावतकिये बनाये जा रहे थे। एक कतार सोनारों की थी, जो ठाकुरजी के आभूषण बना रहे थे। कहीं जड़ाई का काम हो रहा था, कहीं पालिश किया जाता था,

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कर्मभूमि