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'घर में आग लगने पर हमारा क्या धर्म है? क्या हम आग को फैलने दें और घर की बची-बचाई चीजे भी लाकर उसमें डाल दें?'

गुदड़ ने कहा--कभी नहीं। कभी नहीं।

क्यों? इसीलिए कि हम घर को जलाना नहीं, बनाना चाहते हैं। हमें उस घर में रहना है। उसी में जीना है। वह विपत्ति कुछ हमारे ही ऊपर नहीं पड़ी है। सारे देश में यही हाहाकार मचा हुआ है। हमारे नेता इस प्रश्न को हल करने की चेष्टा कर रहे हैं। उन्हीं के साथ हमें भी चलना है।'

उसने एक लम्बा भाषण किया, पर वही जनता जो उसका भाषण सुनकर मस्त हो जाती थी, आज उदासीन बैठी थी। उसका सम्मान सभी करते थे, इसीलिए कोई उधम न हुआ, कोई बमचख न मचा, पर जनता पर कोई असर न हुआ। आत्मानन्द इस समय जनता का नायक बना हुआ था।

सभा बिना कुछ निश्चय किये उठ गयी, लेकिन बहुमत किस तरफ़ है, यह किसी से छिपा न था।


अमर घर लौटा, तो बहुत हताश था। अगर जनता को शान्त करने का उपाय न किया गया तो अवश्य उपद्रव हो जायगा। उसने महन्तजी से मिलने का निश्चय किया। इस समय उसका चित्त इतना उदास था कि एक बार जी में आया, यहाँ सब छोड़-छाड़कर चला जाय। उसे अभी तक अनभव न हुआ था कि जनता सदैव तेज़ मिज़ाजों के पीछे चलती है। वह न्याय और धर्म, हानि-लाभ, अहिंसा और त्याग, सब कुछ समझाकर भी आत्मानन्द के फूंके हुए जादू को उतार न सका। आत्मानन्द इस वक्त यहाँ मिल जाते, तो दोनों मित्रों में ज़रूर लड़ाई हो जाती, लेकिन वह आज गायब थे। उन्हें आज घोड़े का आसन मिल गया था। किसी गाँव में संगठन करने चले गये थे।

आज अमर का कितना अपमान हुआ। किसी ने उसकी बातों पर कान तक न दिया। उनके चेहरे कह रहे थे, तुम क्या बकते हो, तुमसे हमारा

कर्मभूमी
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