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अमरकान्त स्वामी जी के पीछे बैठा हुआ था। स्वामीजी का यह रुख देखकर घबड़ाया, लेकिन सभापति को कैसे रोके? यह तो वह जानता था यह गर्म मिज़ाज का आदमी है, लेकिन इतनी जल्द इतना गर्म हो जायगा इसकी उसे आशा न थी। आख़िर यह महाशय चाहते क्या हैं?

आत्मानन्द गरजकर बोले--तो अब तुम्हारे लिए कौन-सा मार्ग है? अगर मुझसे पूछते हो, और तुम लोग परन करो कि उसे मानोगे, तो में बता सकता हूँ, नहीं तुम्हारी इच्छा।

बहत आवाज़ आई--ज़रूर बतलाइए स्वामीजी, बतलाइए।

जनता चारों ओर से खिसककर और समीप आ गयी। स्वामीजी उनके हृदय को स्पर्श कर रहे हैं, यह उनके चेहरे से झलक रहा था। जनरुचि सदैव उग्र की ओर होती है।

आत्मानन्द बोले--तो आओ, आज हम सब चलकर महन्तजी का मकान और ठाकुरद्वारा घेर लें और जब तक वह लगान बिलकुल न छोड़ दें, कोई उत्सव न होने दें।

बहुत-सी आवाजें आई--हम लोग तैयार है!

'खूब समझ लो कि वहाँ तुम पान-फूल से पूजे न जाओगे।'

'कुछ परवाह नहीं। मर तो रहे हैं। सिसक-सिसककर क्यों मरें।'

'तो इसी वक्त चलो। हम दिखा दें कि...'

सहसा अमर ने खड़े होकर प्रदीप्त नेत्रों से कहा--ठहरो!

समूह में सन्नाटा छा गया। जो जहाँ था, वहीं रह गया।

अमर ने छाती ठोंककर कहा--जिस रास्ते पर तुम जा रहे हो, वह उद्धार का रास्ता नहीं है--सर्वनाश का रास्ता है। तुम्हारा बैल अगर बीमार पड़ जाय, तो तुम उसे जोतोगे?

किसी तरफ़ से आवाज न आई।

'तुम पहले उसकी दवा करोगे, और जब तक वह अच्छा न हो जायगा, उसे न जोतोगे, क्योंकि तुम बैल को मारना नहीं चाहते। उसके मरने से तुम्हारे खेत परती पड़ जायेंगे।'

गूदड़ बोले--बहुत ठीक कहते हो भैया।

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कर्मभूमी