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अमरकान्त को ज्यों ही मालूम हुआ कि सलीम यहाँ का अफ़सर होकर आया है, वह उससे मिलने चला। समझा, खूब गप-शप होगी। यह खयाल तो आया, कहीं उसमें अफ़सरी की बू न आ गयी हो; लेकिन पुराने दोस्त से मिलने की उत्कण्ठा को न रोक सका। बीस-पच्चीस मील का पहाड़ी रास्ता था। ठण्ड खूब पड़ने लगी थी। आकाश कुहरे की धुन्ध से मटियाला हो रहा था और उस धुन्ध में सूर्य जैसे टटोल-टटोलकर रास्ता ढूँढता हुआ चला जाता था। कभी सामने आ जाता कभी छिप जाता। अमर दोपहर के बाद चला था। उसे आशा थी, दिन रहते पहुँच जाऊँगा; किन्तु दिन ढलता जाता था और मालूम नहीं, अभी और कितना रास्ता बाकी है। उसके पास केवल एक देशी कम्बल था। कहीं रात हो गई तो किसी वृक्ष के नीचे टिकना पड़ जायगा। देखते ही देखते सूर्यदेव अस्त भी हो गये। अँधेरा जैसे मुँह खोले संसार को निगलने चला आ रहा था। अमर ने कदम और तेज़ किये। शहर में दाखिल हुआ, तो आठ बज गये थे।

सलीम उसी वक्त क्लब से लौटा था। खबर पाते ही बाहर निकल आया। अमर ने उसकी सज-धज देखी, तो झिझका और गले मिलने के बदले हाथ बढ़ा दिया। अरदली सामने ही खड़ा था। उसके सामने इस देहाती से किसी प्रकार की घनिष्ठता का परिचय देना बड़े साहस का काम था। उसे अपने सजे हुए कमरे में भी न ले जा सका। अहाते में छोटा-सा बाग था। एक वृक्ष के नीचे उसे ले जाकर उसने कहा--यह तुमने क्या धज बना रखी है जी, इतने हूश कबसे हो गये? वाह रे आपका कुर्ता! मालूम होता है, डाक का थैला है, और यह डाबलूश जूता किस दिसावर से मंगवाया है? मुझे डर है, कहीं बेगार में न धर लिये जाओ!

कर्मभूमि
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