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जो म्युनिसिपल बोर्ड और उसके कर्णधारों का सिर हमेशा के लिए नीचा कर दे, उन्हें हमेशा के लिये सबक़ मिल जाय कि जिन्हें वे नीच समझते हैं, उन्हीं की दया और सेवा पर उनके जीवन का आधार है। सारे नगर में एक सनसनी-सी छायी हुई है, मानो किसी शत्रु ने नगर को घेर लिया हो। कहीं धोबियों का जमाव हो रहा है, कहीं चमारों का, कहीं मेहतरों का। नाई-कहारों की पंचायत अलग हो रही है। सुखदा देवी की आज्ञा कौन टाल सकता था? सारे शहर में इतनी जल्द संवाद फैल गया कि यकीन न आता था। ऐसे अवसरों पर न-जाने कहाँ से दौड़नेवाले निकल आते हैं, जैसे हवा में भी हलचल होने लगती है। महीनों से जनता को आशा हो रही थी कि नये-नये घरों में रहेंगे,साफ-सुथरे हवादार घरों में, जहाँ धूप होगी, हवा होगी, प्रकाश होगा। सभी एक नये जीवन का स्वप्न देख रहे थे। आज नगर के अधिकारियों ने उनकी सारी आशाएँ धूल में मिला दीं।

नगर की जनता अब उस दशा में न थी कि उस पर कितना ही अन्याय हो और वह चुपचाप सहती जाय। उसे अपने स्वत्व का ज्ञान हो चुका था। उन्हें मालूम हो गया था कि उन्हें भी आराम से रहने का उतना ही अधिकार है, जितना धनियों को। एक बार संगठित आग्रह की सफलता देख चुके थे। अधिकारियों की यह निरंकुशता, यह स्वार्थपरता उन्हें असह्य हो गयी। और यह कोई सिद्धांत की राजनैतिक लड़ाई न थी, जिसका प्रत्यक्ष स्वरूप जनता की समझ में मुश्किल से आता है। इस आन्दोलन का तत्काल फल उनके सामने था। भावना या कल्पना पर जोर देने की ज़रूरत न थी। शाम होते-होते ठाकुरद्वारे में अच्छा खासा बाजार लग गया।

बोबियों का चौधरी मैकू अपनी बकरे की-सी दाढ़ी हिलाता हुआ बोला, नशे से आँखें लाल थीं -- कपड़े बना रहा था कि खबर मिली। भागा आ रहा हूँ। घर में कहीं कपड़े रखने की जगह नहीं है। गीले कपड़े कहाँ सूखें?

इस पर जगन्नाथ महरा ने डाँटा -- झूठ न बोलो मैकू, तुम कपड़े बना रहे थे अभी? सीधे ताड़ीखाने से चले आ रहे हो। कितना समझाया गया; पर तुमने अपनी टेक न छोड़ी।

मैकू ने तीखे होकर कहा -- लो अब चुप रहो चौधरी, नहीं अभी सारी

कर्मभूमी
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