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खुलवा दिया, अब किसी को कुछ समझती ही नहीं। अब म्युनिसिपैलटी से जमीन के लिए लड़ रही है। ऐसा गच्चा खायँगी कि याद करेंगी। मैंने इस दो साल में जितना कारोबार बढ़ाया है, लाला समरकान्त सात जन्म में नहीं बढ़ा सकते।

मनीराम का सारे घर पर आधिपत्य था। वह धन कमा सकता था, इसलिए उसके आचार-व्यवहार को पसन्द न करने पर भी घर उसका गुलाम था। उसी ने तो काग़ज़ और चीनी की एजेंसी खोली थी। लाला धनीराम घी का काम करते थे और घी के व्यापारी बहुत थे। लाभ कम होता था। काग़ज़ और चीनी का वह अकेला एजेंट था। नफा का क्या ठिकाना! इस सफलता से उसका सिर फिर गया था। किसी को न गिनता था, अगर कुछ आदर करता था, तो लाला धनीराम का। उन्हीं से कुछ दबता भी था।

यहाँ लोग बात कर ही रहे थे कि लाला धनीराम खाँसते, लाठी टेकते हुए आकर बैठ गये।

मनीराम ने तुरन्त पंखा बन्द करते हुए कहा--आपने क्यों कष्ट किया बाबूजी? मुझे बुला लेते। डाक्टर साहब ने आपको चलने-फिरने को मना किया था।

लाला धनीराम ने पूछा-क्या आज लाला समरकान्त की बह आयी थी?

मनीराम कुछ डर गया- जी हाँ, अभी-अभी चली गयीं।

धनीराम ने आँखें निकालकर कहा--तो तुमने अभी से मुझे मरा समझ लिया। मुझे खबर तक न दी।

'मैं तो रोक रहा था; पर बह झल्लाई हुई चली गयीं।'

'तुम अपनी बात चीत से उसे अप्रसन्न कर दिया होगा, नहीं वह मझसे मिले बिना न जाती।'

'मैंने तो केवल यही कहा था कि उनकी तबीयत अच्छी नहीं है।'

'तो तुम समझते हो, जिसकी तबीयत अच्छी न हो, उसे एकान्त में मरने देना चाहिए? आदमी एकान्त में मरना भी नहीं चाहता। उसकी हार्दिक इच्छा होती है कि कोई संकट पड़ने पर उसके सगे सम्बन्धी आकर उसे घेर लें।'

कर्मभूमि
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