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'अच्छी बात है, न जाऊँगी। नैना देवी, कुछ मालूम है तुम्हें, तुम्हारी एक अंग्रेजी सौत आनेवाली है बहुत जल्द।'

'अच्छा ही है, घर में आदमियों का आना किसे बुरा लगता है। एक दो जितनी चाहें आयें, मेरा क्या बिगड़ता है।'

मनीराम इस परिहास पर आपे से बाहर हो गया। सुखदा नैना के साथ चली, तो सामने आकर बोला-आप मेरे घर में नहीं जा सकतीं!

सुखदा रुककर बोली--अच्छी बात है जाती हूँ, मगर याद रखिएगा, इस अपमान का नतीजा आप के हक में अच्छा न होगा।

नैना पैर पड़ती रही; पर सुखदा झल्लाई हुई बाहर निकल गयी।

एक क्षण में घर की सारी औरतें और बच्चे जमा हो गये और सुखदा पर आलोचनाएँ होने लगीं। किसी ने कहा--इसकी आँख का पानी मर गया। किसी ने कहा-ऐसी न होती, तो खसम छोड़कर क्यों चला जाता। नैना सिर झुकाये सुनती रही। उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही थी--तेरे सामने यह अनर्थ हो रहा है, और तू बैठी सुन रही है। लेकिन उस समय जबान खोलना कहर हो जाता। वह लाला समरकान्त की बेटी है, इस अपराध को उसकी निष्कपट सेवा भी न मिटा सकी थी। वाल्मीकीय रामायण की कथा के अवसर पर समरकान्त ने लाला धनीराम का मस्तक नीचा करके इस वैमनस्य का बीज बोया था। उसके पहले दोनों सेठों में मित्र-भाव था। उस दिन से द्वेष उत्पन्न हुआ। समरकान्त का मस्तक नीचा करने ही के लिए धनीराम ने यह विवाह स्वीकार किया। विवाह के बाद उनकी द्वेषज्वाला ठण्डी हो गयी थी। मनीराम ने मेज पर पैर रखकर इस भाव से कहा, मानो सुखदा को कुछ नहीं समझता---में इस औरत को क्या जवाब देता। कोई मर्द होता, तो उसे बताता। लाला समरकान्त ने जुआ खेलकर धन कमाया है। उसी पाप का फल भोग रहे हैं। यह मुझसे बातें करने चली हैं। इनकी माता हैं, उन्हें उस शोहदे शांतिकुमार ने बेवकूफ़ बनाकर सारी जायदाद लिखा ली। अब टके-टके को मुहताज हो रही है। समरकान्त का भी यही हाल होनेवाला है।और यह देवी देश का उपकार करने चली है। अपना परुष तो मारा-मारा फिरता है और आप देश का उद्धार कर रही है। अछूतों को मन्दिर क्या

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कर्मभूमि