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था, जब मिलों के लिए, स्कूलों और कालेजों के लिए, जमीन का प्रबंध हो सकता है, तो इस काम के लिए क्यों न म्युनिसीपैलिटी मुफ्त जमीन दे।

संध्या का समय था। शांतिकुमार नक़शों का एक पुलिन्दा लिये हुए सुखदा के पास आये और एक-एक नक़शा खोलकर दिखाने लगे। यह उन मकानों के नक़शे थे जो बनाये जायेंगे। एक नक़शा आठ आने महीने के मकान का था, दूसरा एक रुपये किराये का और तीसरा दो रुपये किराये का। आठ आने वाले में एक कमरा था, एक रसोई, एक बरामदा, सामने एक बैठक और छोटा-सा सहन। एक रुपये वाले में भीतर दो कमरे थे और दो रुपये वाले में तीन कमरे।

कमरों में खिड़कियाँ थीं, फर्श और दो फीट ऊँचाई तक दीवारें पक्की। ठाट खपरैल का था।

दो रुपयेवालों में शौच-गृह भी थे। बाक़ी दस-दस घरों के बीच में एक शौच-गृह बनाया गया।

सुखदा ने पूछा--आपने लागत का तख्मीना भी किया है?

'और क्या योंही नकशे बनवा लिये हैं! आठ आनेवाले घरों की लागत दो सौ होगी, एक रुपयेवालों की तीन सौ और दो रुपयेवालों की चार सौ। चार आने का सूद पड़ता है।'

'पहले कितने मकानों का प्रोग्राम है?'

'कम-से कम तीन हजार। दक्खिन की तरफ़ लगभग इतने ही मकानों की जरूरत होगी। मैंने हिसाब लगा लिया है। कुछ लोग तो ज़मीन मिलने पर रुपये लगायेंगे; मगर कम-से-कम दस लाख की जरूरत और होगी।'

'मार डाला। दस लाख! एक तरफ के लिये!'

'अगर पाँच लाख के हिस्सेदार मिल जाय तो बाकी रुपये जनता खुद लगा देगी, मजदूरी में वही किफायत होगी। राज, बेलदार, बढ़ई, लोहार आधी मजदूरी पर काम करने को तैयार हैं। ठेलेवाले, गधेवाले, गाडीवाले, यहाँ तक कि एक और तांगेवाले भी बेगार में काम करने पर राजी हैं।

'देखिये, शायद चल जाय। दो तीन लाख शायद दादाजी लगा दें, अम्मा के पास भी अभी कुछ-न-कुछ होगा ही। बाकी रुपये की फ़िक्र करनी है। सबसे बड़ी जमीन की मुश्किल है।'

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कर्मभूमि