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'मुझे तो रास्ते ही में पता लगा। गलियों में छिपती हुई आई।'

'लोग कितने कायर हैं। घरों के किवाड़ तक बन्द कर लिये।'

'लालाजी जाकर पुलिसवालों को मना क्यों नहीं करते?'

'इन्हीं के आदेश से तो गोली चली है। मना कैसे करेंगे।'

'अच्छा! दादा ही ने गोली चलवायी है ?'

'हाँ, इन्हीं ने जाकर कप्तान से कहा है। और अब घर में छिपे बैठे हैं। मैं अछूतों का मन्दिर में जाना उचित नहीं समझती; लेकिन गोलियां चलते देखकर मेरा खून खौल रहा है। जिस धर्म की रक्षा गोलियों से हो, उस धर्म में सत्य का लोप समझो। देखो-देखो, उस आदमी बेचारे को गोली लग गयी! छाती से खून बह रहा है।'

यह कहती हुई वह समरकान्त के सामने जाकर बोली--क्यों लालाजी, रक्त की नदी बह जाय, पर मन्दिर का द्वार न खुलेगा?

समरकान्त ने अविचलित भाव से उत्तर दिया--क्या बकती है बहू, इन डोम-चमारों को मन्दिर में घुसने दूं? तू तो अमर से भी दो हाथ आगे बढ़ी जाती है। जिसके हाथ का पानी नहीं पी सकते, उसे मन्दिर में कैसे जाने दें ?

सुखदा ने और वाद-विवाद न किया। वह मनस्वी महिला थी। वही तेजस्विता, जो अभिमान बनकर उसे विलासिनी बनाये हुए थी, जो उसे छोटों से मिलने न देती थी, जो उसे किसी से दबने न देती थी, उत्सर्ग के रूप में उबल पड़ी। वह उन्माद की दशा में घर से निकली और पुलिसवालों के सामने खड़ी होकर, भागनेवालों को ललकारती हुई बोली--भाइयो ! क्यों भाग रहे हो? यह भागने का समय नहीं, छाती खोलकर सामने खड़े होने का समय है। दिखा दो कि तुम धर्म के नाम पर किस तरह प्राणों को होम करते हो। धर्मवीर ही ईश्वर को पाते हैं। भागनेवालों की कभी विजय नहीं होती।

भागनेवालों के पाँव सँभल गये। एक महिला को गोलियों के सामने खड़ी देखकर कायरता भी लज्जित हो गयी। एक बुढ़िया ने पास आकर कहा--बेटी, ऐसा न हो, तुम्हें गोली लग जाय !

सुखदा ने निश्चल भाव से कहा--जहाँ इतने आदमी मर गये, वहाँ मेरे

२१२ कर्मभूमि