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नहीं रहा। सलीम और हम उनके पास बैठे रहे। इस वक्त जाकर आँखें खोली हैं।

इतने परिचित आदमियों के सामने नैना कैसे ठहरती। वह तुरंत लौट पड़ी, पर यहाँ आना निष्फल न हुआ। डाक्टर साहब को होश आ गया है।

वह मार्ग में ही थी कि उसने सैकड़ों आदमियों को दौड़े हुए आते देखा। वह एक गली में छिप गयी। शायद फ़ोजदारी हो गयी। अब वह घर कैसे पहुँचेगी? संयोग से आत्मानन्दजी मिल गये। नैना को पहचानकर बोले--यहाँ तो गोलियां चल रही हैं। पुलिस कप्तान ने आकर फैर करा दिया।

नैना के चेहरे का रंग उड़ गया। जैसे नसों में रक्त का प्रवाह बन्द हो गया हो। बोली--क्या आप उधर ही से आ रहे हैं ?

'हाँ, मरते-मरते बचा। गली से निकल आया। हम लोग केवल खड़े थे। बस, कप्तान ने फैर करने का हुक्म दे दिया। तुम कहाँ गयी थीं ?'

'मैं गंगा-स्नान करके लौटी जा रही थी। लोगों को भागते देखकर इधर चली आयी। कैसे घर पहुँचूँगी?'

'इस समय तो उधर जाने में जोखिम है।'

फिर एक क्षण के बाद कदाचित् अपनी कायरता पर लज्जित होकर कहा--किन्तु गलियों में कोई डर नहीं है। चलो मैं तुम्हें पहुँचा दूं। कोई पूछे, तो कह देना, मैं लाला समरकान्त की कन्या हूँ।

नैना ने मन में कहा--यह महाशय संन्यासी बनते हैं, फिर भी इतने डरपोक ! पहले तो ग़रीबों को भड़काया और जब मार पड़ी, तो सबसे आगे भाग खड़े हुए। मौका न था, नहीं उन्हें ऐसा फटकारती कि याद करते। उनके साथ कई गलियों का चक्कर लगाते कोई दस बजे घर पहुँची। आत्मानन्द फिर उसी रास्ते से लौट गये। नैना ने उन्हें धन्यवाद भी न दिया। उनके प्रति अब उसे लेश-मात्र भी श्रद्धा न थी।

वह अन्दर गयी, तो देखा--सुखदा सदर द्वार पर खड़ी है और सामने सड़क से लोग भागते चले जा रहे हैं।

सुखदा ने पूछा--तुम कहाँ चली गयी थीं बीबी ? पुलिस ने फैर कर दिया। बेचारे आदमी भागे जा रहे हैं।

कर्मभूमि २११