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एक बढ़िया बोली--कब तक खड़ी रहोगी बिटिया, भीतर जाकर बैठ जाओ।

नैना ने कहा--मैं बड़े आराम से हूँ। सुनाई तो दे रहा है।

बुढ़िया आगे थी। उसने नैना का हाथ पकड़कर अपनी जगह पर खींच लिया और आप उसकी जगह पर पीछे हट आई। नैना ने अब शांतिकुमार को सामने देखा। उनके मुख पर देवोपम तेज छाया हुआ था। जान पड़ता था, इस समय वह किसी दिव्य जगत् में हैं, मानों यहां की वायु सुधामयी हो गयी है। जिन दरिद्र चेहरों पर वह फटकार बरसते देखा करती थी, उन पर आज कितना गर्व था, मानो वे किसी नवीन सम्पत्ति के स्वामी हो गये हैं। इतनी नम्रता, इतनी भद्रता, इन लोगों में उसने कभी न देखी थी।

शांतिकुमार कह रहे थे--क्या तुम ईश्वर के घर से गुलामी करने का बीड़ा लेकर आये हो? तुम तन-मन से दूसरों की सेवा करते हो! पर तुम गुलाम हो। तुम्हारा समाज में कोई स्थान नहीं। तुम समाज की बुनियाद हो। तुम्हारे ही ऊपर समाज खड़ा है, पर तुम अछूत हो। तुम मन्दिरों में नहीं जा सकते। ऐसी अनीति इस अभागे देश के सिवा और कहां हो सकती है? क्या तुम सदैव इसी भाँति पतित और दलित बने रहना चाहते हो?

एक आवाज आई--हमारा क्या बस है?

शांतिकुमार ने उत्तेजनापूर्ण स्वर में कहा--तुम्हारा बस उस समय तक कुछ नहीं है, जब तक तुम समझते हो कि तुम्हारा बस नहीं है। मन्दिर किसी एक आदमी या समुदाय की चीज़ नहीं है। वह हिन्दू-मात्र की चीज़ है। यदि तुम्हें कोई रोकता है तो उसकी जबरदस्ती है। मत टलो उस मन्दिर के द्वार से, चाहे तुम्हारे ऊपर गोलियों की वर्षा ही क्या न हो। तुम ज़रा-ज़रा-सी बात के पीछे अपना सर्वस्व गँवा देते हो, जान देते हो, यह तो धर्म की बात है; और धर्म हमें जान से प्यारा होता है। धर्म की रक्षा सदा प्राणों से हुई है और प्राणों से होगी।

कल की मारधाड़ ने सभी को उत्तेजित कर दिया था। दिन भर उसी विषय की चरचा होती रही। बारूद तैयार होती रही। उसमें चिनगारी की कसर थी। ये शब्द चिनगारी का काम कर गये। सब्र-शक्ति ने हिम्मत भी बढ़ा दी। लोगों ने पगड़ियां सँभाली, आसन बदलें और एक दूसरे की

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कर्मभूमि