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मैं बहती चली जाती थी। प्रातःकाल चौधरी का बड़ा लड़का सुमेर गंगा नहाने गया और मुझे उठा लाया। तब से मैं यहीं हूँ। अछूतों की इस झोपड़ी में मुझे जो सुख और शांति मिली उसका बखान क्या करूँ ? काशी और पयाग मुझे भाभी कहते हैं, पर सुमेर मुझे बहन कहता था। मैं अभी अच्छी तरह उठने-बैठने भी न पाई थी, कि वह परलोक सिधार गया।

अमर के मन में एक काँटा बराबर खटक रहा था। वह कुछ निकला; पर अभी कुछ बाकी था।

'सुमेर से तुमसे प्रेम तो होगा ही ?'

मुन्नी के तेवर बदल गये--हाँ था, और थोड़ा नहीं, बहुत था, तो फिर उसमें मेरा क्या बस? जब में स्वस्थ हो गयी, तो एक दिन उसने मुझसे अपना प्रेम प्रकट किया। मैंने क्रोध को हँसी में लपेट कर कहा--क्या तुम इस रूप में मुझसे नेकी का बदला चाहते हो ? अगर यह नीयत है, तो मुझे फिर ले जाकर गंगा में डुबा दो। अगर इस नीयत से तुमने मेरी प्राण-रक्षा की तो तुमने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया। तुम जानते हो, मैं कौन हूँ ? मैं राजपूत हूँ। फिर कभी भूलकर भी मुझसे ऐसी बात न कहना, नहीं गंगा यहाँ से दूर नहीं है। सुमेर ऐसा लज्जित हुआ कि फिर मुझसे बात तक नहीं की; पर मेरे शब्दों ने उसका दिल तोड़ दिया। एक दिन मेरी पसलियों में दर्द होने लगा। उसने समझा भूत का फेर है। ओझा को बुलाने गया। नदी चढ़ी हुई थी। डूब गया। मुझे उसकी मौत का जितना दुःख हुआ, उतना ही अपने सगे भाई के मरने का हुआ था। नीचों में भी ऐसे देवता होते हैं, इसका मुझे यहीं आकर पता लगा। वह कुछ दिन और जी जाता, तो इस घर के भाग जाग जाते। सारे गाँव का गुलाम था। कोई गाली दे, डाँटे, कभी जवाब न देता।

अमर ने पूछा--तब से तुम्हें अपने पति और बच्चे की खबर न मिली होगी?

मुन्नी की आँखों से टपटप आँसू गिरने लगे। रोते-रोते हिचकी बँध गयी। फिर सिसक-सिसक कर बोली--स्वामी प्रातःकाल फिर धर्मशाले में गये। जब उन्हें मालूम हुआ कि मैं रात को वहाँ नहीं गयी, तो मुझे खोजने लगे। जिधर कोई मेरा पता बता देता, उधर ही चले जाते। एक महीने तक वह सारे इलाके में मारे-मारे फिरे। इसी निराशा और चिन्ता में वह कुछ सनक

१८६ कर्मभूमि