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'और किस लिए चलाया जाता है ?'

'वह आत्म-शुद्धि का एक साधन है।'

समरकान्त के घाव पर जैसे नमक पड़ गया। बोले---यह आज नयी बात मालूम हुई। तब तो तुम्हारे ऋषी होने में कोई सन्देह नहीं रहा ! मगर आत्म-शुद्धि के साधन के साथ कुछ घर-गृहस्थी का काम भी देखना होता है। दिन भर स्कूल में रहो, वहाँ से लौटो तो चरखे पर बैठो ; रात तुम्हारी स्त्री-पाठशाला खुले, सन्ध्या समय जलसे हों, तो फिर घर का धन्धा कौन करे। मैं बैल नहीं हूँ। तुम्हीं लोगों के लिए इस जंजाल में फँसा हुआ हूँ। अपने ऊपर लाद न ले जाऊँगा। तुम्हें कुछ तो मेरी मदद करनी चाहिए। बड़े नीतिवान बनते हो, क्या यही नीति है, कि बूढ़ा बाप मरा करे और जवान बेटा उसकी बात भी न पूछे !

अमरकान्त ने उद्दण्डता से कहा--मैं तो आपसे बार-बार कह चुका, आप मेरे लिए कुछ न करें। मुझे धन की जरूरत नहीं। आपकी भी वृद्धावस्था है। शान्तचित्त होकर भगवत्-भजन कीजिए।

समरकान्त तीखे शब्दों में बोले--धन न रहेगा लाला तो भीख मांगोगे, यों चैन से बैठकर चरखा न चलाओगे। यह तो न होगा, मेरी कुछ मदद करो; पुरुषार्थहीन मनुष्य की तरह कहने लगे, मुझे धन की जरूरत नहीं। कौन है जिसे धन की ज़रूरत नहीं ? साधु-सन्यासी तक पैसों पर प्राण देते हैं। धन बड़े पुरुषार्थ से मिलता है। जिसमें पुरुषार्थ नहीं, वह धन क्या कमायेगा? बड़े बड़े तो धन की उपेक्षा कर ही नहीं सकते, तुम किस खेत की मूली हो ?

अमर ने उसी वितण्डा भाव से कहा--संसार धन के लिए प्राण दे, मुझे धन की इच्छा नहीं। एक मजूर भी धर्म और आत्मा की रक्षा करते हुए जीवन का निर्वाह कर सकता है। कम-से-कम मैं अपने जीवन में इस की परीक्षा करना चाहता हूँ।

लालाजी को वाद विवाद का अवकाश न था। हार कर बोले--अच्छा बाबा, कर लो खूब जी भर कर परीक्षा; लेकिन रोज रोज रुपये के लिए मेरा सिर न खाया करो। मैं अपनी गाढ़ी कमाई तुम्हारे व्यसन के लिए नहीं लुटाना चाहता।

लालाजी चले गये। नैना कहीं एकान्त में जाकर खूब रोना चाहती थी

कर्मभूमि
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