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सलोनी ने कहा--बाजरे का है, गेहूँ कहाँ से लाती ?

'तो मैं आटा लिये आती हूँ। नहीं चलो दे दूँ। वहाँ काम-धन्धे में लग जाऊँगी तो सुरति न रहेगी।'

मुन्नी को तीन साल हुए मुखिया का लड़का हरिद्वार से लाया था। एक सप्ताह से एक धर्मशाले के द्वार पर जीर्ण दशा में पड़ी थी। बड़े-बड़े आदमी धर्मशाले में आते थे, सैकड़ों-हजारों दान करते थे; पर इस दुखिया पर किसी को दया न आती थी। वह चमार युवक जूते बेचने गया था। इस पर उसे दया आ गयी। गाड़ी पर लादकर घर लाया। दवा-दारू होने लगी; चौधरी बिगड़े, यह मुर्दा क्यों लाया; पर युवक बराबर दौड़-धूप करता रहा। वहाँ डाक्टर-वैद्य कहाँ थे। भभूत और आशीर्वाद का भरोसा था। एक ओझे की तारीफ़ सुनी, मुर्दो को जिला देता है। रात को उसे बुलाने चला, चौधरी ने कहा--दिन होने दो तब जाना। युवक ने न माना, रात को ही चल दिया। गंगा चढ़ी हुई थी। उसे पार करके जाना था। सोचा, तैरकर निकल जाऊँगा, कौन बहुत चौड़ा पाट है। सैकड़ों ही बार इस तरह आ-जा चुका था। निश्शंक पानी में घुस पड़ा; पर लहरें तेज थीं, पाँव उखड़ गये। बहुत सँभालना चाहा पर न सँभाल सका। दूसरे दिन दो कोस पर उसकी लाश मिली। एक चट्टान से चिमटी पड़ी थी। उसके मरते ही मुन्नी जी उठी और तबसे यहीं है। यही घर उसका घर है। यहाँ उसका आदर है, मान है। वह अपनी जात-पाँत भूल गयी, आचार-विचार भूल गयी,और ऊँच जाति की ठकुराइन अछूतों के साथ, अछूत बनकर आनन्दपूर्वक रहने लगी। वह घर की मालकिन थी। बाहर का सारा काम वह करती, भीतर की रसोई-पानी, कूटना-पीसना दोनों देवरानियाँ करती थीं। वह बाहरी न थी। चौधरी की बड़ी बहू हो गयी थी।

सलोनी को ले जाकर मुन्नी ने एक थाल में आटा, अचार और दही रखकर दिया; पर सलोनी को यह थाल लेकर घर में जाते लाज आती थी। पाहुना द्वार पर बैठा हुआ है। सोचेगा, इसके घर में आटा भी नहीं? ज़रा और अँधेरा हो जाय तो जाऊँ।

मुन्नी ने पूछा--क्या सोचती हो काकी?

'सोचती हूँ, जरा और अँधेरा हो जाय तो जाऊँ। अपने मन में क्या कहेगा !'

कर्मभूमि १४३