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बुढ़िया ने दूध एक पीतल के कटोरे में उड़ेल दिया और आप घड़ा उठा कर पानी लाने चली। अमर ने कहा--मैं खींचे लाता हूँ माता, रस्सी तो कुएँ पर होगी?

'नहीं बेटा, तुम कहाँ जाओगे पानी भरने। एक रात के लिए आ गये, तो मैं तुमसे पानी भराऊँ ?'

बुढ़िया हाँ, हाँ करती रह गयी। अमरकान्त घड़ा लिये कुएँ पर पहुँच गया। बुढ़िया से न रहा गया। वह भी उसके पीछे-पीछे गयी।

कुएँ पर कई औरतें पानी खींच रही थीं। अमरकान्त को देखकर एक युवती ने पूछा--कोई पाहुने हैं क्या सलोनी काकी?

बुढ़िया हँसकर बोली--पाहुने न होते, तो पानी भरने कैसे आते ! तेरे घर ऐसे पाहुने आते हैं ?

युवती ने तिरछी आँखों से अमर को देखकर कहा--हमारे पाहुने तो अपने हाथ से पानी भी नहीं पीते काकी। ऐसे भोले-भाले पाहुने को मैं अपने घर ले जाऊँगी।

अमरकान्त का कलेजा धक् से हो गया। यह युवती वही मुन्नी थी, जो खून के मुक़दमे में बरी हो गयी थी। वह अब उतनी दुर्बल, चिन्तित नहीं है। रूप में माधुर्य है, अंगों में विकास, मुख पर हास्य की मधुर छवि। आनन्द जीवन का तत्व है। वह अतीत की परवाह नहीं करता। पर शायद मुन्नी ने अमरकान्त को नहीं पहचाना। उसकी सूरत इतनी बदल गयी है। शहर का सुकुमार युवक देहात का मजूर हो गया है।

अमर ने झेंपते हुए कहा--मैं पाहुना नहीं हूँ देवी, परदेशी हूँ। आज इस गाँव में आ निकला। इस नाते सारे गाँव का अतिथि हूँ।

युवती ने मुस्कराकर कहा--तब एक-दो घड़ों से पिंड न छूटेगा। दो सौ घड़े भरने पड़ेंगे, नहीं तो घड़ा इधर बढ़ा दो। झूठ तो नहीं कहती काकी?

उसने अमरकान्त के हाथ से घड़ा ले लिया और चट फंदा लगा, कुएँ में डाल, बात-की-बात में घड़ा खींच लिया।

अमरकान्त घड़ा लेकर चला गया, तो मुन्नी ने सलोनी से कहा--किसी भले घर का आदमी है काकी। देखा, कितना शर्माता था। मेरे यहाँ से अचार मँगवा लीजियो, आटा-वाटा तो है ?

कर्मभूमि
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