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कैसे सोयेंगे। कल ही कहाँ से हुन बरस जायगा। मगर सुखदा की बात कैसे काटे।

रेणुका ले बच्चे की मुच्छियाँ लेकर कहा--भला, देख लेना जब मैं मर जाऊँ। अभी तो मैं जीती हूँ। वह भी तो तेरा ही है। चल जल्दी कर।

सुखदा ने दृढ़ता से कहा--अम्मा जब तक हम अपनी कमाई से अपना निबाह न करने लगेंगे, तब तक तुम्हारे यहाँ न जायेंगे। जायेंगे, पर मेहमान की तरह। घंटे-दो-घंटे बैठे और चले आये।

रेणुका ने अमर से अपील की--देखते हो बेटा इसकी बातें, यह मुझे भी गैर समझती है।

सुखदा ने व्यथित कंठ से कहा--अम्मा, बुरा न मानना, आज दादाजी का बरताव देखकर मुझे मालूम हो गया कि धनियों को अपना धन कितना प्यारा होता है। कौन जाने कभी तुम्हारे मन में भी ऐसे ही भाव पैदा हों तो ऐसा अवसर आने ही क्यों दिया जाय ? जब हम मेहमान की तरह ...

अमर ने बात काटी। रेणका के कोमल हृदय पर कितना कठोर आघात था--

'तुम्हारे जाने में तो ऐसा कोई हरज नहीं है सुखदा! तुम्हें बड़ा कष्ट होगा।'

सुखदा ने तीव्र स्वर में कहा--तो क्या तुम्हीं कष्ट सह सकते हो ? मैं नहीं सह सकती ? तुम अगर कष्ट से डरते हो, तो जाओ। मैं तो अभी कहीं नहीं जाने की।

नतीजा यह हआ कि रेणुका ने सिल्लो को घर भेजकर अपने बिस्तर मँगवाये। भोजन पक चुका था; इसलिए भोजन भी मँगवा लिया गया। छत पर झाड़ू दी गई और जैसे धर्मशाले में यात्री ठहरते हैं, उसी तरह इन लोगों ने भोजन करके रात काटी। बीच-बीच में मजाक भी हो जाता था। विपत्ति में जी चारों ओर अन्धकार दीखता है, वह हाल न था। अन्धकार था पर उपाकाल का। विपत्ति थी; पर सिर पर नहीं, पैरों के नीचे।

दूसरे दिन सबेरे रेणुका घर चली गयी। उसने फिर सब को साथ ले चलने के लिए जोर लगाया; पर सुखदा राजी न हुई। कपड़े-लत्ते, बरतन-भांडे, खाट-खटोली, कोई चीज़ लेने पर राजी न हुई, यहाँ तक

कर्मभूमि ११७