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खूब जानता हूँ, वह उन लोगों में हैं जो दूसरों के घर में आग लगाकर अपना हाथ सेंकते हैं। कौम के नाम पर जान देते हैं, मगर जबान से।

सुखदा भी खुश हुई। अमर का शाला के पीछे पागल हो जाना उसे न सुहाता था। डाक्टर साहब से उसे चिढ़ थी। वही अमर को उँगलियों पर नचा रहे हैं। उन्हीं के फेर में पड़कर अमर घर से फिर उदासीन हो गया है।

पर जब संध्या समय अमर ने सकीना से ज़िक्र किया, तो उसने डाक्टर साहब का पक्ष लिया--मैं समझती हूँ, डाक्टर साहब का खयाल ठीक है। भखे पेट ख़ुदा की याद भी नहीं हो सकती। जिसके सिर रोजी की फ़िक्र सवार है, वह क़ौम की क्या खिदमत करेगा, और करेगा तो अमानत में ख़यानत करेगा। आदमी भूखा नहीं रह सकता। फिर मदरसे का खर्च भी तो है। माना कि दरख़तों के नीचे ही मदरसा लगे; लेकिन वह बाग कहाँ है ? कोई ऐसी जगह तो चाहिए ही जहाँ लड़के बैठकर पढ़ सकें। लड़कों को किताबें, कागज़ चाहिए, बैठने को फ़र्श चाहिए, डोल-रस्सी चाहिए। या तो चन्दे से आये, या कोई कमाकर दे! सोचो, जो आदमी अपने उसूल के खिलाफ नौकरी करके एक काम की बुनियाद डालता है, वह उसके लिए कितनी बड़ी कुरबानी कर रहा है। तुम अपने वक्त की कुरबानी करते हो। वह अपने ज़मीर तक की कुरबानी कर देता है। मैं तो ऐसे आदमी को कहीं ज्यादा इज्ज़त के लायक समझती हूँ।

पठानिन ने कहा--तुम इस छोकरी की बातों में न आओ बेटा, जाकर घर का धन्धा देखो, जिससे गृहस्थी का निवाह हो। यह सैलानीपन उन लोगों को चाहिए, जो घर के निखट्टू हैं। तुम्हें अल्लाह ने इज्जत दी है, मरतबा दिया है, बाल-बच्चे दिये हैं। तुम इन खुराफातों में न पड़ो।

अमर को अब टोपियाँ बेचने से फुर्सत मिल गई थी। बुढ़िया को रेणुका देवी के द्वारा चिकन का काम इतना ज्यादा मिल जाता था कि टोलियाँ कौन काढ़ता। सलीम के घर से भी कोई-न-कोई काम आता ही रहता था। उनके ज़रिये से और घरों से भी काफ़ी काम मिल जाता था। सकीना के घर में कुछ खुशहाली नज़र आती थी। घर की पुताई हो गयी थी,द्वार पर नया परदा पड़ गया था, दो खाटें नई आ गई थीं, खाटों पर दरियाँ भी नई थीं, कई बरतन नये आ गये थे। कपड़े-लत्ते की भी शिकामत न थी। उर्दू का एक

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कर्मभूमि