---मुझे मालूम है कि ज़ियाद ने आज तुम्हारी पीठ पर ख़ूब हाथ फेरे हैं, और हरी-हरी घास दिखायी है, पर याद रखो, घास के नीचे जाल बिछा हुआ है।
[ बहार से ईंट और पत्थर की वर्षा होने लगती है। ]
एक आ०---मारो-मारो, यह क़ौम का दुश्मन है।
सुले०---ज़ालिमो, यह ख़ुदा का घर है। इसकी हुरमत का तो ख़याल रखो।
दू०---ख़ुदा का घर नहीं, इस्लाम के दुश्मनों का अड्डा है।
तीसरा---मारो-मारो, अभी तक इसकी ज़बान बन्द नहीं हुई।
[ सुलेमान ज़ख़्मी होकर गिर पड़ते हैं। मुस्लिम बाहर आकर कहते हैं ]
"ऐ बदनसाब क़ौम, अगररातू इतनी जल्द रसूल की नसीहतों को भूल सकती है, और तुझ मे नेक व बद की तमीज़ नहीं रही, अगर तू इतनी जल्द जुल्म और ज़िल्लत को भूल सकती है, तो तू दुनिया में कभी सुर्ख़रू न होगी।"
एक आ०---इस्लाम का दुश्मन है।
दूसरा---नहीं-नहीं, हज़रत हुसैन के चचेरे भाई हैं। इनकी तौहीन मत करो।
तीसरा---इन्हें पकड़कर शहर की किसी अँधेरी गली में छोड़ दो। हम इनके खून से हाथ न रँगेंगे।
[ कई आदमी मुस्लिम पर टूट पड़ते, और उन्हें खींचते हुए ले जाते हैं, और साथ ही परदा भी बदलता है। ]
मुस०---( दिल में ) ज़ालिमों ने कहाँ लाकर छोड़ दिया। कुछ नहीं सूझता। रास्ता नहीं मालूम। कहाँ जाऊँ? कोई आदमी नज़र नहीं आता कि उससे रास्ता पूछूँ!
[ हानी आता हुआ दिखायी देता है। ]
मु०---ऐ ख़ुदा के नेक बन्दे, मुझे यहाँ से निकलने का रास्ता बता दो।
हानी---हजरत मुस्लिम! क्या अभी आप यहीं खड़े हैं?
मु०---आप हैं, हानी? रसूल पाक की क़सम, इस वक्त तन में जान