गुलाम―जनाब ने क्यों याद फ़रमाया?
मुख़०―देखो, इसी वक्त़ हारिस, हज्जाज, सुलेमान, शिमर, क़ीस, शैस और हानी के मकान पर जाओ, और मेरा यह रुक्क़ा दिखाकर जवाब लाओ।
पहले मुझे ऐसा मालूम होता था कि हज़रत का कोई क़ासिद आयेगा, तो मैं शायद दीवाना हो जाऊँगा, पर इस वक्त़ आपको सामने देखकर भी ख़ामोश बैठा हुआ हूँ। किसी शायर ने सच कहा है―‘जो मज़ा इन्तजा़र में देखा, वह नहीं वस्ले-यार में देखा।’ जन्नत का ख़याल कितना दिलफ़रेब है, पर शायद उसमें दाख़िल होने पर इतनी खुशी न रहे। आइए, नमाज़ अदा कर लें। इसके बाद कुछ आराम फ़रमा लीजिए। फिर दम मारने की फ़ुरसत न मिलेगी।
[दोनो मकान के अन्दर चले जाते हैं। परदा बदलता है। मुस्लिम और मुख़्तार बैठे हुए हैं।
मु०―कितने आदमी बैयत लेने के लिये तैयार हैं?
मुख़०―देखिए, सब अभी आ जाते हैं। अगर यज़ीद की जानिब से ज़ुल्म और सख्ती इसी तरह होती रही, तो हमारे मददगारों की तादाद दिन-दिन बढ़ती जायगी। लेकिन कहीं उसने दिलजोई शुरू कर दी, तो हमें इतनी आसानी से कामयाबी न होगी।
सुले०―अस्सलामअलेक हज़रत मुस्लिम, आपको देखकर आँखें रोशन हो गयीं; मेरे कब़ीले के सौ आदमी बैयत लेने को हाज़िर हैं। और सब-के-सब अपनी बात पर मिटनेवाले आदमी हैं।
मु०―आपको खुदा नजात दे। इन आदमियों से कहिए, कल जामा मस्जिद मे जमा हों। आपका ख़त पढ़कर भैया को बहुत रंज हुआ। उन्होंने तो फैसला कर लिया था कि रसूल के मजा़र पर बैठे हुए ज़िन्दगी गुज़ार दें, पर आपके आखिरी ख़त ने उन्हें बेक़रार कर दिया। सायल की हिमायत से वह कभी मुँह नहीं मोड़ सकते।