जिय़ाद---मेरा सवाल सिर्फ़ इतना है कि इस मौक़े पर रियाया के साथ मुलायमियत का बर्ताव किया जाय, सरदारों को जागीरें दी जायँ, उनके वज़ीफ़े बढ़ाये जायँ, यतीमों और बेवाओं की परवरिश का इंतजाम किया जाय। मैंने कूफ़ावालों की खसलत का गौर से मुताला किया है, वे हयादार नहीं हैं, दिलेर नहीं हैं, दीनदार नहीं हैं। चंद खास आदमियों को छोड़कर सब-के-सब लोभी और ख़ुदग़रज़ हैं, बात पर अड़ना नहीं जानते, शान पर मरना नहीं जानते, थोड़े-से फ़ायदे के लिए भाई-भाई का गला काटने पर आमादा हो जाते हैं। कुत्तों को भगाने के लिए लाठी से ज़्यादा अासान हड्डी का एक टुकड़ा होता है। सब-के-सब उस पर टूट पड़ते और एक-दूसरे को भंभोड़ खाते हैं। ख़लीफ़ा का खज़ाना दस-बीस हजार दीनारों के निकल जाने से खाली न हो जायगा, पर एक क़ौम हमारे हाथ आ जायगी। सख़्ती कमज़ारों के हक़ में वही काम करती है, जो ऐंठन तिनकों के साथ। हम ऐंठन के बदले हवा के एक झोंके से तिनकों को बिखेर सकते हैं। फ़ौज से फ़ौज कुचली जा सकती है, एक क़ौम नहीं।
रूमी---मैं तो हमेशा सख़्ती का हामी रहा, और रहूँगा।
शरीक---कामिल हकीम वह है, जो मरीज़ के मिज़ाज के मुताबिक दवा मे तबदीली करता रहे। आपने उस हकीम का क़िस्सा नहीं सुना, जो हमेशा फ़्सद खोलने की तजवीज़ किया करता था। एक बार एक दीवाने का फ़्सद खोलने गया। दीवाने ने हकीम की गरदन इतने ज़ोर से दबायी कि हकीम साहब की ज़बान बाहर निकल आयी। मुल्कदारी के आईन मौक़े और ज़रूरत के मुताबिक बदलते रहते हैं।
यज़ीद---ज़ियाद, मैं इस मुअामले मे तुम्हें मुख्तार बनाता हूँ। मुझे भी कुछ कुछ अंदेशा हो रहा है कि कहीं हुसैन के वादे कूफ़ावालों को लुभा न लें। तुम जो मुनासिब समझो, करो, लेकिन याद रक्खो, अगर कूफ़ा गया, तो तुम्हारी जान उसके साथ जायगी। यह शर्त मंजूर है?
जिय़ाद---मंजूर है।
यज़ीद---हुर को ताक़ीद कर दो कि बहुत नमाज़ न पढ़े, और मुस्लिम को इस तरह तलाश करे, जैसे कोई बख़ील अपनी खोयी मुर्ग़ो को तलाश